भागवत पुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय – 14


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गृहस्थसम्बन्धी सदाचार

राजा युधिष्ठिरने पूछा – देवर्षि नारदजी! मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रमके इस पदको किस साधनसे प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये।।१।।

नारदजीने कहा – युधिष्ठिर! मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहे और गृहस्थधर्मके अनुसार सब काम करे, परन्तु उन्हें भगवान् के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओंकी सेवा भी करे।।२।।

अवकाशके अनुसार विरक्त पुरुषोंमें निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान् के अवतारोंकी लीला-सुधाका पान करता रहे।।३।।

जैसे स्वप्न टूट जानेपर मनुष्य स्वप्नके सम्बन्धियोंसे आसक्त नहीं रहता – वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्संगके द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिकी आसक्ति स्वयं छोड़ता चले।

क्योंकि एक-न-एक दिन ये छूटनेवाले ही हैं।।४।।

बुद्धिमान् पुरुषको आवश्यकताके अनुसार ही घर और शरीरकी सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं।

भीतरसे विरक्त रहे और बाहरसे रागीके समान लोगोंमें साधारण मनुष्यों-जैसा ही व्यवहार करे।।५।।

माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र, जातिवाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहें, भीतरसे ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे।।६।।

बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदिके द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकारके धन भगवान् के ही दिये हुए हैं – ऐसा समझकर प्रारब्धके अनुसार उनका उपभोग करता हुआ संचय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधुसेवा आदि कर्मोंमें लगा दे।।७।।

मनुष्योंका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनकी भूख मिट जाय।

इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये।।८।।

हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलनेवाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदिको अपने पुत्रके समान ही समझे।

उनमें और पुत्रोंमें अन्तर ही कितना है।।९।।

गृहस्थ मनुष्योंको भी धर्म, अर्थ और कामके लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसीसे सन्तोष करना चाहिये।।१०।।

अपनी समस्त भोग-सामग्रियोंको कुत्ते, पतित और चाण्डालपर्यन्त सब प्राणियोंको यथायोग्य बाँटकर ही अपने काममें लाना चाहिये।

और तो क्या, अपनी स्त्रीको भी – जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी है – अतिथि आदिकी निर्दोष सेवामें नियुक्त रखे।।११।।

लोग स्त्रीके लिये अपने प्राणतक दे डालते हैं।

यहाँतक कि अपने मा-बाप और गुरुको भी मार डालते हैं।

उस स्त्रीपरसे जिसने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवान् पर भी विजय प्राप्त कर ली।।१२।।

यह शरीर अन्तमें कीड़े, विष्ठा या राखकी ढेरी होकर रहेगा।

कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती है वह स्त्री, और कहाँ अपनी महिमासे आकाशको भी ढक रखनेवाला अनन्त आत्मा!।।१३।।

गृहस्थको चाहिये कि प्रारब्धसे प्राप्त और पंचयज्ञ आदिसे बचे हुए अन्नसे ही अपना जीवन-निर्वाह करे।

जो बुद्धिमान् पुरुष इसके सिवा और किसी वस्तुमें स्वत्व नहीं रखते, उन्हें संतोंका पद प्राप्त होता है।।१४।।

अपनी वर्णाश्रमविहित वृत्तिके द्वारा प्राप्त सामग्रियोंसे प्रतिदिन देवता, ऋषि, मनुष्य, भूत और पितृगणका तथा अपने आत्माका पूजन करना चाहिये।

यह एक ही परमेश्वरकी भिन्न-भिन्न रूपोंमें आराधना है।।१५।।

यदि अपनेको अधिकार आदि यज्ञके लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्निहोत्र आदिके द्वारा भगवान् की आराधना करनी चाहिये।।१६।।

युधिष्ठिर! वैसे तो समस्त यज्ञोंके भोक्ता भगवान् ही हैं; परन्तु ब्राह्मणके मुखमें अर्पित किये हुए हविष्यान्नसे उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अग्निके मुखमें हवन करनेसे नहीं।।१७।।

इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियोंमें यथायोग्य, उनके उपयुक्त सामग्रियोंके द्वारा सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान भगवान् की पूजा करनी चाहिये।

इनमें प्रधानता ब्राह्मणोंकी ही है।।१८।।

धनी द्विजको अपने धनके अनुसार आश्विन मासके कृष्णपक्षमें अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि)-का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये।।१९।।

इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकरकी संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेषकी संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहणके समय, द्वादशीके दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रोंमें, वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन – इन चार महीनोंकी कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघकी मघा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीनेकी वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदिसे युक्त हो – चाहे चन्द्रमा पूर्ण हों या अपूर्ण; द्वादशी तिथिका अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपदाके साथ योग, एकादशी तिथिका तीनों उत्तरा नक्षत्रोंसे योग अथवा जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्रसे योग – ये सारे समय पितृगणोंका श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं।

ये योग केवल श्राद्धके लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मोंके लिये उपयोगी हैं।

ये कल्याणकी साधनाके उपयुक्त और शुभकी अभिवृद्धि करनेवाले हैं।

इन अवसरोंपर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये।

इसीमें जीवनकी सफलता है।।२०-२४।।

इन शुभ संयोगोंमें जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणोंकी पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियोंको समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है।।२५।।

युधिष्ठिर! इसी प्रकार स्त्रीके पुंसवन आदि, सन्तानके जातकर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि संस्कारोंके समय, शव-दाहके दिन या वार्षिक श्राद्धके उपलक्ष्यमें अथवा अन्य मांगलिक कर्मोंमें दान आदि शुभकर्म करने चाहिये।।२६।।

युधिष्ठिर! अब मैं उन स्थानोंका वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेयकी प्राप्ति करानेवाले हैं।

सबसे पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों।।२७।।

जिनमें यह सारा चर और अचर जगत् स्थित है, उन भगवान् की प्रतिमा जिस देशमें हो, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणोंसे युक्त ब्राह्मणोंके परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान् की पूजा होती हो और पुराणोंमें प्रसिद्ध गंगा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं।।२८-२९।।

पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषोंके द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्राम क्षेत्र), नैमिषारण्य, फाल्गुनक्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दुसरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजीके आश्रम – अयोध्या, चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुलपर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान् के अर्चावतार हैं – वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं।

कल्याणकामी पुरुषको बार-बार इन देशोंका सेवन करना चाहिये।

इन स्थानोंपर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्योंको उनका हजारगुना फल मिलता है।।३०-३३।।

युधिष्ठिर! पात्रनिर्णयके प्रसंगमें पात्रके गुणोंको जाननेवाले विवेकी पुरुषोंने एकमात्र भगवान् को ही सत्पात्र बतलाया है।

यह चराचर जगत् उन्हींका स्वरूप है।।३४।।

अभी तुम्हारे इसी यज्ञकी बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकोंके रहनेपर भी अग्रपूजाके लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही पात्र समझा गया।।३५।।

असंख्य जीवोंसे भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्षके एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं।

इसलिये उनकी पूजासे समस्त जीवोंकी आत्मा तृप्त हो जाती है।।३६।।

उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदिके शरीररूप पुरोंकी रचना की है तथा वे ही इन पुरोंमें जीवरूपसे शयन भी करते हैं।

इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है।।३७।।

युधिष्ठिर! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि शरीरोंमें उनकी विभिन्नताके कारण न्यूनाधिकरूपसे प्रकाशमान हैं।

इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्योंमें भी, जिसमें भगवान् का अंश – तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है।।३८।।

युधिष्ठिर! त्रेता आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान् की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की।।३९।।

तभीसे कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्रीसे प्रतिमामें ही भगवान् की पूजा करते हैं।

परन्तु जो मनुष्यसे द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमाकी उपासना करनेपर भी सिद्धि नहीं मिल सकती।।४०।।

युधिष्ठिर! मनुष्योंमें भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है।

क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणोंसे भगवान् के वेदरूप शरीरको धारण करता है।।४१।।

महाराज! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या – ये जो सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं।

क्योंकि उनके चरणोंकी धूलसे तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं।।४२।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे सदाचारनिर्णयो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।१४।।


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