भागवत पुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय – 1


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स्वायम्भुव-मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! स्वायम्भुव मनुके महारानी शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद—इन दो पुत्रोंके सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं।।१।।

आकूतिका, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपाकी अनुमतिसे उन्होंने रुचि प्रजापतिके साथ ‘पुत्रिकाधर्म’-के* अनुसार विवाह किया।।२।।

प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य चिन्तनके कारण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न थे। उन्होंने आकूतिके गर्भसे एक पुरुष और स्त्रीका जोड़ा उत्पन्न किया।।३।।

उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी।।४।।

मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परमतेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर ले आये और दक्षिणाको रुचि प्रजापतिने अपने पास रखा।।५।।

जब दक्षिणा विवाहके योग्य हुई तो उसने यज्ञभगवान् को ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा की, तब भगवान् यज्ञपुरुषने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणाको बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान् ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये।।६।।

उनके नाम हैं—तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन।।७।।

ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ‘तुषित’ नामके देवता हुए। उस मन्वन्तरमें मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओंके अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनोंके बेटों, पोतों और दौहित्रोंके वंशसे छा गया।।८-९।।

प्यारे विदुरजी! मनुजीने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दमजीको ब्याही थी। उसके सम्बन्धकी प्रायः सभी बातें तुम मुझसे सुन चुके हो।।१०।।

भगवान् मनुने अपनी तीसरी कन्या प्रसूतिका विवाह ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिसे किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकीमें फैली हुई है।।११।।

मैं कर्दमजीकी नौ कन्याओंका, जो नौ ब्रह्मर्षियोंसे ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनकी वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ, सुनो।।१२।।

मरीचि ऋषिकी पत्नी कर्दमजीकी बेटी कलासे कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंशसे यह सारा जगत् भरा हुआ है।।१३।।

शत्रुतापन विदुरजी! पूर्णिमाके विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नामकी एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्ममें श्रीहरिके चरणोंके धोवनसे देवनदी गंगाके रूपमें प्रकट हुई।।१४।।

अत्रिकी पत्नी अनसूयासे दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नामके तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्माके अंशसे उत्पन्न हुए थे।।१५।।

विदुरजीने पूछा—गुरुजी! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करनेवाले इन सर्वश्रेष्ठ देवोंने अत्रि मुनिके यहाँ क्या करनेकी इच्छासे अवतार लिया था?।।१६।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा—जब ब्रह्माजीने ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये।।१७।।

वहाँ पलाश और अशोकके वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलोंके गुच्छोंसे लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी।।१८।।

उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमें करके सौ वर्षतक केवल वायु पीकर सर्दी-गरमी आदि द्वन्दोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े रहे।।१९। उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरणमें हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें’।।२०।।

तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधनसे प्रज्वलित हुआ अत्रि मुनिका तेज उनके मस्तकसे निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है—ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग—उनका सुयश गा रहे थे।।२१-२२।।

उन तीनोंका एक ही साथ प्रादुर्भाव होनेसे अत्रि मुनिका अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैरसे खड़े-खड़े ही उन देवदेवोंको देखा और फिर पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर प्रणाम करनेके अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजनकी सामग्री हाथमें ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन—हंस, गरुड और बैलपर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नोंसे सुशोभित थे।।२३-२४।।

उनकी आँखोंसे कृपाकी वर्षा हो रही थी। उनके मुखपर मन्द हास्यकी रेखा थी—जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेजसे चौंधियाकर मुनिवरने अपनी आँखें मूँद लीं।।२५।।

वे चित्तको उन्हींकी ओर लगाकर हाथ जोड़ अति मधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनोंमें लोकमें सबसे बड़े उन तीनों देवोंकी स्तुति करने लगे।।२६।।

अत्रि मुनिने कहा—भगवन्! प्रत्येक कल्पके आरम्भमें जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये जो मायाके सत्त्वादि तीनों गुणोंका विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये—मैंने जिनको बुलाया था, आपमेंसे वे कौन महानुभाव हैं?।।२७।।

क्योंकि मैंने तो सन्तानप्राप्तिकी इच्छासे केवल एक सुरेश्वर भगवान् का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनोंने यहाँ पधारनेकी कृपा कैसे की? आप-लोगोंतक तो देहधारियोंके मनकी भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपलोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये।।२८।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—समर्थ विदुरजी! अत्रि मुनिके वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणीमें कहने लगे।।२९।।

देवताओंने कहा—ब्रह्मन्! तुम सत्यसंकल्प हो। अतः तुमने जैसा संकल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं।।३०।।

प्रिय महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशस्वरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुन्दर यशका विस्तार करेंगे।।३१।।

उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनोंसे भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकोंको चले गये।।३२।।

ब्रह्माजीके अंशसे चन्द्रमा, विष्णुके अंशसे योगवेत्ता दत्तात्रेयजी और महादेवजीके अंशसे दुर्वासा ऋषि अत्रिके पुत्ररूपमें प्रकट हुए। अब अंगिरा ऋषिकी सन्तानोंका वर्णन सुनो।।३३।।

अंगिराकी पत्नी श्रद्धाने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति—इन चार कन्याओंको जन्म दिया।।३४।।

इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान् उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी—ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तरमें विख्यात हुए।।३५।।

पुलस्त्यजीके उनकी पत्नी हविर्भूसे महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा—ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्ममें जठराग्नि हुए।।३६।।

विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनीसे रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।।३७।।

महामते! महर्षि पुलहकी स्त्री परम साध्वी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।।३८।।

इसी प्रकार क्रतुकी पत्नी क्रियाने ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया।।३९।।

शत्रुतापन विदुरजी! वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती)-से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित्त ब्रह्मर्षियोंका जन्म हुआ।।४०।।

उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नीसे शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए।।४१।।

अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगुके वंशका वर्णन सुनो।।४२।।

महाभाग भृगुजीने अपनी भार्या ख्यातिसे धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नामकी एक भगवत्परायणा कन्या उत्पन्न की।।४३।।

मेरुऋषिने अपनी आयति और नियति नामकी कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाताको ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए।।४४।।

उनमेंसे मृकण्डके मार्कण्डेय और प्राणके मुनिवर वेदशिराका जन्म हुआ। भृगुजीके एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान् उशना (शुक्राचार्य) हुए।।४५।।

विदुरजी! इन सब मुनीश्वरोंने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टिका विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दमजीके दौहित्रोंकी सन्तानका वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापोंको यह तत्काल नष्ट कर देता है।।४६।।

ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिने मनुनन्दिनी प्रसूतिसे विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं।।४७।।

भगवान् दक्षने उनमेंसे तेरह धर्मको, एक अग्निको, एक समस्त पितृगणको और एक संसारका संहार करनेवाले तथा जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले भगवान् शंकरको दी।।४८।।

श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति—ये धर्मकी पत्नियाँ हैं।।४९।।

इनमेंसे श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मोद और पुष्टिने अहंकारको जन्म दिया।।५०।।

क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बुद्धिने अर्थ, मेधाने स्मृति, तितिक्षाने क्षेम और ह्री (लज्जा)-ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया।।५१।।

समस्त गुणोंकी खान मूर्तिदेवीने नर-नारायण ऋषियोंको जन्म दिया।।५२।।

इनका जन्म होनेपर इस सम्पूर्ण विश्वने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगोंके मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत—सभीमें प्रसन्नता छा गयी।।५३।।

आकाशमें मांगलिक बाजे बजने लगे, देवतालोग फूलोंकी वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे।।५४।।

अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मंगल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रोंद्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे।।५५।।

देवताओंने कहा—जिस प्रकार आकाशमें तरह-तरहके रूपोंकी कल्पना कर ली जाती है—उसी प्रकार जिन्होंने अपनी मायाके द्वारा अपने ही स्वरूपके अन्दर इस संसारकी रचना की है और अपने उस स्वरूपको प्रकाशित करनेके लिये इस समय इस ऋषि-विग्रहके साथ धर्मके घरमें अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुषको हमारा नमस्कार है।।५६।।

जिनके तत्त्वका शास्त्रके आधारपर हमलोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते—उन्हीं भगवान् ने देवताओंको संसारकी मर्यादामें किसी प्रकारकी गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुणसे उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रोंसे—जो समस्त शोभा और सौन्दर्यके निवासस्थान निर्मल दिव्य कमलको भी नीचा दिखानेवाले हैं—हमारी ओर निहारें।।५७।।

प्यारे विदुरजी! प्रभुका साक्षात् दर्शन पाकर देवताओंने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वतपर चले गये।।५८।।

भगवान् श्रीहरिके अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हींके सरीखे श्यामवर्ण, कुरुकुलतिलक अर्जुनके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं।।५९।।

अग्निदेवकी पत्नी स्वाहाने अग्निके ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि—ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थोंका भक्षण करनेवाले हैं।।६०।।

इन्हीं तीनोंसे पैंतालीस प्रकारके अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामहको साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये।।६१।।

वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्ममें जिन उनचास अग्नियोंके नामोंसे आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं।।६२।।

अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप—ये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरोंकी पत्नी दक्षकुमारी स्वधा हैं।।६३।।

इन पितरोंसे स्वधाके धारिणी और वयुना नामकी दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञानमें पारंगत और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करनेवाली हुईं।।६४।।

महादेवजीकी पत्नी सती थीं, वे सब प्रकारसे अपने पतिदेवकी सेवामें संलग्न रहनेवाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शीलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ।।६५।।

क्योंकि सतीके पिता दक्षने बिना ही किसी अपराधके भगवान् शिवजीके प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सतीने युवावस्थामें ही क्रोधवश योगके द्वारा स्वयं ही अपने शरीरका त्याग कर दिया था।।६६।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः।।१।।


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