भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 22


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भिन्न-भिन्न ग्रहोंकी स्थिति और गतिका वर्णन

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान् सूर्य राशियोंकी ओर जाते समय मेरु और ध्रुवको दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुतः उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती – इस विषयको हम किस प्रकार समझें?।।१।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – राजन्! जैसे कुम्हारके घूमते हुए चाकपर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदिकी अपनी गति उससे भिन्न ही है क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समयमें उस चक्रके भिन्न-भिन्न स्थानोंमें देखी जाती है – उसी प्रकार नक्षत्र और राशियोंसे उपलक्षित कालचक्रमें पड़कर ध्रुव और मेरुको दायें रखकर घूमनेवाले सूर्य आदि ग्रहोंकी गति वास्तवमें उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेदसे भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रोंमें देख पड़ते हैं।।२।।

वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गतिको जाननेके लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदिपुरुष भगवान् नारायण ही लोकोंके कल्याण और कर्मोंकी शुद्धिके लिये अपने वेदमय विग्रह कालको बारह मासोंमें विभक्त कर वसन्तादि छः ऋतुओंमें उनके यथायोग्य गुणोंका विधान करते हैं।।३।।

इस लोकमें वर्णाश्रमधर्मका अनुसरण करनेवाले पुरुष वेदत्रयीद्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मोंसे इन्द्रादि देवताओंके रूपमें और योगके साधनोंसे अन्तर्यामीरूपमें उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमतासे ही परम पद प्राप्त कर सकते हैं।।४।।

भगवान् सूर्य सम्पूर्ण लोकोंके आत्मा हैं।

वे पृथ्वी और द्युलोकके मध्यमें स्थित आकाशमण्डलके भीतर कालचक्रमें स्थित होकर बारह मासोंको भोगते हैं, जो संवत्सरके अवयव हैं और मेष आदि राशियोंके नामसे प्रसिद्ध हैं।

इनमेंसे प्रत्येक मास चन्द्रमानसे शुक्ल और कृष्ण दो पक्षका, पितृमानसे एक रात और एक दिनका तथा सौरमानसे सवा दो नक्षत्रका बताया जाता है।

जितने कालमें सूर्यदेव इस संवत्सरका छठा भाग भोगते हैं, उसका वह अवयव ‘ऋतु’ कहा जाता है।।५।।

आकाशमें भगवान् सूर्यका जितना मार्ग है, उसका आधा वे जितने समयमें पार कर लेते हैं, उसे एक ‘अयन’ कहते हैं।।६।।

तथा जितने समयमें वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गतिसे स्वर्ग और पृथ्वीमण्डलके सहित पूरे आकाशका चक्कर लगा जाते हैं, उसे अवान्तर भेदसे संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं।।७।।

इसी प्रकार सूर्यकी किरणोंसे एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा है।

उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रोंसे आगे रहता है।

यह सूर्यके एक वर्षके मार्गको एक मासमें, एक मासके मार्गको सवा दो दिनोंमें और एक पक्षके मार्गको एक ही दिनमें तै कर लेता है।।८।।

यह कृष्णपक्षमें क्षीण होती हुई कलाओंसे पितृगणके और शुक्लपक्षमें बढ़ती हुई कलाओंसे देवताओंके दिन-रातका विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तोंमें एक-एक नक्षत्रको पार करता है।

अन्नमय और अमृतमय होनेके कारण यही समस्त जीवोंका प्राण और जीवन है।।९।।

ये जो सोलह कलाओंसे युक्त मनोमय, अन्नमय, अमृतमय पुरुषस्वरूप भगवान् चन्द्रमा हैं – ये ही देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और वृक्षादि समस्त प्राणियोंके प्राणोंका पोषण करते हैं; इसलिये इन्हें ‘सर्वमय’ कहते हैं।।१०।।

चन्द्रमासे तीन लाख योजन ऊपर अभिजित् के सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं।

भगवान् ने इन्हें कालचक्रमें नियुक्त कर रखा है, अतः ये मेरुको दायीं ओर रखकर घूमते रहते हैं।।११।।

इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र दिखायी देता है।

यह सूर्यकी शीघ्र, मन्द और समान गतियोंके अनुसार उन्हींके समान कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ रहकर चलता है।

यह वर्षा करनेवाला ग्रह है, इसलिये लोकोंको प्रायः सर्वदा ही अनुकूल रहता है।

इसकी गतिसे ऐसा अनुमान होता है कि यह वर्षा रोकनेवाले ग्रहोंको शान्त कर देता है।।१२।।

शुक्रकी गतिके साथ-साथ बुधकी भी व्याख्या हो गयी – शुक्रके अनुसार ही बुधकी गति भी समझ लेनी चाहिये।

यह चन्द्रमाका पुत्र शुक्रसे दो लाख योजन ऊपर है।

यह प्रायः मंगलकारी ही है; किन्तु जब सूर्यकी गतिका उल्लंघन करके चलता है, तब बहुत अधिक आँधी, बादल और सूखेके भयकी सूचना देता है।।१३।।

इससे दो लाख योजन ऊपर मंगल है।

वह यदि वक्रगतिसे न चले तो, एक-एक राशिको तीन-तीन पक्षमें भोगता हुआ बारहों राशियोंको पार करता है।

यह अशुभ ग्रह है और प्रायः अमंगलका सूचक है।।१४।।

इसके ऊपर दो लाख योजनकी दूरीपर भगवान् बृहस्पतिजी हैं।

ये यदि वक्रगतिसे न चलें, तो एक-एक राशिको एक-एक वर्षमें भोगते हैं।

ये प्रायः ब्राह्मणकुलके लिये अनुकूल रहते हैं।।१५।।

बृहस्पतिसे दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर दिखायी देते हैं।

ये तीस-तीस महीनेतक एक-एक राशिमें रहते हैं।

अतः इन्हें सब राशियोंको पार करनेमें तीस वर्ष लग जाते हैं।

ये प्रायः सभीके लिये अशान्तिकारक हैं।।१६।।

इनके ऊपर ग्यारह लाख योजनकी दूरीपर कश्यपादि सप्तर्षि दिखायी देते हैं।

ये सब लोकोंकी मंगल-कामना करते हुए भगवान् विष्णुके परम पद ध्रुवलोककी प्रदक्षिणा किया करते हैं।।१७।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ज्योतिश्चक्रवर्णने द्वाविंशोऽध्यायः।।२२।।


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