भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 19


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किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन्! किम्पुरुषवर्षमें श्रीलक्ष्मणजीके बड़े भाई, आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्रीरामके चरणोंकी सन्निधिके रसिक परम भागवत श्रीहनुमान् जी अन्य किन्नरोंके सहित अविचल भक्तिभावसे उनकी उपासना करते हैं।।१।।

वहाँ अन्य गन्धर्वोंके सहित आर्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान् रामकी परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं।

श्रीहनुमान् जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्रका जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं।।२।।

‘हम ॐकारस्वरूप पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीरामको नमस्कार करते हैं।

आपमें सत्पुरुषोंके लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधनतत्पर, साधुताकी परीक्षाके लिये कसौटीके समान और अत्यन्त ब्राह्मणभक्त हैं।

ऐसे महापुरुष महाराज रामको हमारा पुनः-पुनः प्रणाम है’।।३।।

‘भगवन्! आप विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूपके प्रकाशसे गुणोंके कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंका निरास करनेवाले, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, शुद्ध बुद्धिसे ग्रहण किये जानेयोग्य, नाम-रूपसे रहित और अहंकारशून्य हैं; मैं आपकी शरणमें हूँ।।४।।

प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसोंके वधके लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्योंको शिक्षा देना है! अन्यथा, अपने स्वरूपमें ही रमण करनेवाले साक्षात् जगदात्मा जगदीश्वरको सीताजीके वियोगमें इतना दुःख कैसे हो सकता था।।५।।

आप धीर पुरुषोंके आत्मा* और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकीकी किसी भी वस्तुमें आपकी आसक्ति नहीं है।

आप न तो सीताजीके लिये मोहको ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजीका त्याग ही कर सकते हैं†।।६।।

आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षाके लिये ही हैं।

लक्ष्मणाग्रज! उत्तम कुलमें जन्म, सुन्दरता, वाक् चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि – इनमेंसे कोई भी गुण आपकी प्रसन्नताका कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखानेके लिये ही आपने इन सब गुणोंसे रहित हम वनवासी वानरोंसे मित्रता की है।।७।।

देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य – कोई भी हो, उसे सब प्रकारसे श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नररूपमें साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े कियेको भी बहुत अधिक मानते हैं।

आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधामको सिधारे थे, तब समस्त उत्तरकोसलवासियोंको भी अपने साथ ही ले गये थे’।।८।।

भारतवर्षमें भी भगवान् दयावश नर-नारायणरूप धारण करके संयमशील पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये अव्यक्तरूपसे कल्पके अन्ततक तप करते रहते हैं।

उनकी यह तपस्या ऐसी है कि जिससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति और उपरतिकी उत्तरोत्तर वृद्धि होकर अन्तमें आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो सकती है।।९।।

वहाँ भगवान् नारदजी स्वयं श्रीभगवान् के ही कहे हुए सांख्य और योगशास्त्रके सहित भगवन्महिमाको प्रकट करनेवाले पांचरात्रदर्शनका सावर्णि मुनिको उपदेश करनेके लिये भारतवर्षकी वर्णाश्रम-धर्मावलम्बिनी प्रजाके सहित अत्यन्त भक्तिभावसे भगवान् श्रीनर-नारायणकी उपासना करते और इस मन्त्रका जप तथा स्तोत्रको गाकर उनकी स्तुति करते हैं।।१०।।

– ‘ओंकारस्वरूप, अहंकारसे रहित, निर्धनोंके धन, शान्तस्वभाव ऋषिप्रवर भगवान् नर-नारायणको नमस्कार है।

वे परमहंसोंके परम गुरु और आत्मारामोंके अधीश्वर हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।।११।।

यह गाते हैं – ‘जो विश्वकी उत्पत्ति आदिमें उनके कर्ता होकार भी कर्तृत्वके अभिमानसे नहीं बँधते, शरीरमें रहते हुए भी उसके धर्म भूख-प्यास आदिके वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होनेपर भी जिनकी दृष्टि दृश्यके गुण-दोषोंसे दूषित नहीं होती – उन असंग एवं विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नर-नारायणको नमस्कार है।।१२।।

योगेश्वर! हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्माजीने योगसाधनकी सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकालमें देहाभिमानको छोड़कर भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूपमें अपना मन लगावे।।१३।।

लौकिक और पारलौकिक भोगोंके लालची मूढ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धनकी चिन्ता करके मौतसे डरते हैं – उसी प्रकार यदि विद्वान् को भी इस निन्दनीय शरीरके छूटनेका भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञानप्राप्तिके लिये किया हुआ सारा प्रयत्न केवल श्रम ही है।।१४।।

अतः अधोक्षज! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो! इस निन्दनीय शरीरमें आपकी मायाके कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता-ममताको हम तुरन्त काट डालें’।।१५।।

एतदेव हि देवा गायन्ति – राजन्।

इस भारतवर्षमें भी बहुत-से पर्वत और नदियाँ हैं – जैसे मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि।

इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं।

उनके तटप्रान्तोंसे निकलनेवाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं।।१६।।

ये नदियाँ अपने नामोंसे ही जीवको पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हींके जलमें स्नानादि करती है।।१७।।

उनमेंसे मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं – चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नामके नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरुद् वृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा।।१८।।

इस वर्षमें जन्म लेनेवाले पुरुषोंको ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मोंके अनुसार क्रमशः नाना प्रकारकी दिव्य, मानुष और नारकी योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवोंको सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं।

इसी वर्षमें अपने-अपने वर्णके लिये नियत किये हुए धर्मोंका विधिवत् अनुष्ठान करनेसे मोक्षतककी प्राप्ति हो सकती है।।१९।।

परीक्षित्! सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, रागादि दोषोंसे रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान् वासुदेवमें अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्षपद है।

यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकारकी गतियोंको प्रकट करनेवाली अविद्यारूप हृदयकी ग्रन्थि कट जानेपर भगवान् के प्रेमी भक्तोंका संग मिलता है।।२०।।

देवता भी भारतवर्षमें उत्पन्न हुए मनुष्योंकी इस प्रकार महिमा गाते हैं – ‘अहा! जिन जीवोंने भारतवर्षमें भगवान् की सेवाके योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्यके लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं।।२१।।

हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो यह तुच्छ स्वर्गका अधिकार प्राप्त हुआ है – इससे क्या लाभ है? यहाँ तो इन्द्रियोंके भोगोंकी अधिकताके कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अतः कभी श्रीनारायणके चरणकमलोंकी स्मृति होती ही नहीं।।२२।।

यह स्वर्ग तो क्या – जहाँके निवासियोंकी एक-एक कल्पकी आयु होती है किन्तु जहाँसे फिर संसारचक्रमें लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादिकी अपेक्षा भी भारतभूमिमें थोड़ी आयुवाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षणमें ही अपने इस मर्त्यशरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।।२३।।

‘जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद् गमस्थान भगवद् भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादिके साथ बड़े समारोहसे भगवान् यज्ञपुरुषकी पूजा-अर्चा नहीं की जाती – वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये।।२४।।

जिन जीवोंने इस भारतवर्षमें ज्ञान (विवेकबुद्धि), तदनुकूल कर्म तथा उस कर्मके उपयोगी द्रव्यादि सामग्रीसे सम्पन्न मनुष्यजन्म पाया है, वे यदि आवागमनके चक्रसे निकलनेका प्रयत्न नहीं करते, तो व्याधकी फाँसीसे छूटकर भी फलादिके लोभसे उसी वृक्षपर विहार करनेवाले वनवासी पक्षियोंके समान फिर बन्धनमें पड़ जाते हैं।।२५।।

‘अहो! इन भारतवासियोंका कैसा सौभाग्य है! जब ये यज्ञमें भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादिके योगसे श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारे जानेपर सम्पूर्ण कामनाओंके पूर्ण करनेवाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हविको ग्रहण करते हैं।।२६।।

यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषोंके माँगनेपर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान् का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओंको पा लेनेपर भी मनुष्यके मनमें पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं।

इसके विपरीत जो उनका निष्कामभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं – जो अन्य समस्त इच्छाओंको समाप्त कर देनेवाले हैं।।२७।।

अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मोंसे यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभावसे हमें इस भारतवर्षमें भगवान् की स्मृतिसे युक्त मनुष्यजन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवालेका सब प्रकारसे कल्याण करते हैं’।।२८।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन्! राजा सगरके पुत्रोंने अपने यज्ञके घोड़ेको ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वीको चारों ओरसे खोदा था।

उससे जम्बूद्वीपके अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगोंका कथन है।।२९।।

वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका हैं।।३०।।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बूद्वीपके वर्षोंका विभाग सुना दिया।।३१।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे जम्बूद्वीपवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।।१९।।

* यहाँ शंका होती है कि भगवान् तो सभीके आत्मा हैं, फिर यहाँ उन्हें आत्मवान् (धीर) पुरुषोंके ही आत्मा क्यों बताया गया? इसका कारण यही है कि सबके आत्मा होते हुए भी उन्हें केवल आत्मज्ञानी पुरुष ही अपने आत्मारूपसे अनुभव करते हैं – अन्य पुरुष नहीं।

श्रुतिमें जहाँ-कहीं आत्मसाक्षात्कारकी बात आयी है, वहीं आत्मवेत्ताके लिये ‘धीर’ शब्दका प्रयोग किया है।

जैसे ‘कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत’ इति ‘नः शुश्रुम धीराणाम्’ इत्यादि।

इसीलिये यहाँ भी भगवान् को आत्मवान् या धीर पुरुषका आत्मा बताया है।

† एक बार भगवान् श्रीराम एकान्तमें एक देवदूतसे बात कर रहे थे।

उस समय लक्ष्मणजी पहरेपर थे और भगवान् की आज्ञा थी कि यदि इस समय कोई भीतर आवेगा तो वह मेरे हाथसे मारा जायगा।

इतनेमें ही दुर्वासा मुनि चले आये और उन्होंने लक्ष्मणजीको अपने आनेकी सूचना देनेके लिये भीतर जानेको विवश किया।

इससे अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान् बड़े असमंजसमें पड़ गये।

तब वसिष्ठजीने कहा कि लक्ष्मणजीके प्राण न लेकर उन्हें त्याग देना चाहिये; क्योंकि अपने प्रियजनका त्याग मृत्युदण्डके समान ही है।

इसीसे भगवान् ने उन्हें त्याग दिया।


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