भागवत पुराण – पंचम स्कन्ध – अध्याय – 12


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रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

राजा रहूगणने कहा – भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

आपने जगत् का उद्धार करनेके लिये ही यह देह धारण की है।

योगेश्वर! अपने परमानन्दमय स्वरूपका अनुभव करके आप इस स्थूलशरीरसे उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मणके वेषसे अपने नित्यज्ञानमय स्वरूपको जनसाधारणकी दृष्टिसे ओझल किये हुए हैं।

मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।।१।।

ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वरसे पीड़ित रोगीके लिये मीठी ओषधि और धूपसे तपे हुए पुरुषके लिये शीतल जल अमृततुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेकबुद्धिको देहाभिमानरूप विषैले सर्पने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधिके समान हैं।।२।।

देव! मैं आपसे अपने संशयोंकी निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा।

पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसीको सरल करके समझाइये, उसे समझनेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।।३।।

योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठानेकी क्रिया तथा उससे जो श्रमरूप फल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होनेपर भी केवल व्यवहारमूलके ही हैं, वास्तवमें सत्य नहीं है – वे तत्त्वविचारके सामने कुछ भी नहीं ठहरते – सो इस विषयमें मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथनका मर्म मेरी समझमें नहीं आ रहा है।।४।।

जडभरतने कहा – पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वीका विकार है, पाषाणादिसे इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारणसे पृथ्वीपर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं।

इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं।।५।।

कंधोंके ऊपर लकड़ीकी पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नामका एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करनेसे तुम ‘मैं सिन्धु देशका राजा हूँ’ इस प्रबल मदसे अंधे हो रहे हो।।६।।

किन्तु इसीसे तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तवमें तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो।

तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारोंको बेगारमें पकड़कर पालकीमें जोत रखा है और फिर महापुरुषोंकी सभामें बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकोंकी रक्षा करनेवाला हूँ।

यह तुम्हें शोभा नहीं देता।।७।।

हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वीसे ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वीमें ही लीन होते हैं; अतः उनके क्रियाभेदके कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं – बताओ तो, उनके सिवा व्यवहारका और क्या मूल है?।।८।।

इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्दका व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादानकारण सूक्ष्म परमाणुओंमें लीन हो जाती है।

और जिनके मिलनेसे पृथ्वीरूप कार्यकी सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मनसे ही कल्पना किये हुए हैं।

वास्तवमें उनकी भी सत्ता नहीं है।।९।।

इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणोंसे युक्त द्वैत-प्रपंच है – उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामोंवाली भगवान् की मायाका ही कार्य समझो।।१०।।

विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहरके भेदसे रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है।

वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है।

उसीका नाम ‘भगवान्’ है और उसीको पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं।।११।।

रहूगण! महापुरुषोंके चरणोंकी धूलिसे अपनेको नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादिके दान, अतिथिसेवा, दीनसेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्यकी उपासना आदि किसी भी साधनसे यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।।१२।।

इसका कारण यह है कि महापुरुषोंके समाजमें सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणोंकी चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती और जब भगवत्कथाका नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुषकी शुद्ध बुद्धिको भगवान् वासुदेवमें लगा देती है।।१३।।

पूर्वजन्ममें मैं भरत नामका राजा था।

ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके विषयोंसे विरक्त होकर भगवान् की आराधनामें ही लगा रहता था; तो भी एक मृगमें आसक्ति हो जानेसे मुझे परमार्थसे भ्रष्ट होकर अगले जन्ममें मृग बनना पड़ा।।१४।।

किन्तु भगवान् श्रीकृष्णकी आराधनाके प्रभावसे उस मृगयोनिमें भी मेरी पूर्वजन्मकी स्मृति लुप्त नहीं हुई।

इसीसे अब मैं जनसंसर्गसे डरकर सर्वदा असंगभावसे गुप्तरूपसे ही विचरता रहता हूँ।।१५।।

सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषोंके सत्संगसे प्राप्त ज्ञानरूप खड्गके द्वारा मनुष्यको इस लोकमें ही अपने मोहबन्धनको काट डालना चाहिये।

फिर श्रीहरिकी लीलाओंके कथन और श्रवणसे भगवत्स्मृति बनी रहनेके कारण वह सुगमतासे ही संसारमार्गको पार करके भगवान् को प्राप्त कर सकता है।।१६।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे द्वादशोऽध्यायः।।१२।।


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