भागवत पुराण – भागवत माहात्म्य – अध्याय – 4


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गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

सूतजी कहते हैं –

मुनिवर! उस समय अपने भक्तोंके चित्तमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल श्रीभगवान् अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे।।१।।

उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी, श्रीअंग सजल जलधरके समान श्यामवर्ण था, उसपर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे सुसज्जित था, सिरपर मुकुटकी लटक और कानोंमें कुण्डलोंकी झलक देखते ही बनती थी।।२।।

वे त्रिभंगललित भावसे खड़े हुए चित्तको चुराये लेते थे।

वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि दमक रही थी, सारा श्रीअंग हरिचन्दनसे चर्चित था।

उस रूपकी शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों कामदेवोंकी रूपमाधुरी छीन ली थी।।३।।

वे परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबिसे अपने भक्तोंके निर्मल चित्तोंमें आविर्भूत हुए।।४।।

भगवान् के नित्य लोक-निवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ गुप्तरूपसे उस कथाको सुननेके लिये आये हुए थे।।५।।

प्रभुके प्रकट होते ही चारों ओर ‘जय हो! जय हो!!’ की ध्वनि होने लगी।

उस समय भक्तिरसका अद् भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलाल और पुष्पोंकी वर्षा तथा शंखध्वनि होने लगी।।६।।

उस सभामें जो लोग बैठे थे, उन्हें अपने देह, गेह और आत्माकी भी कोई सुधि न रही।

उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारदजी कहने लगे – ।।७।।

मुनीश्वरगण! आज सप्ताहश्रवणकी मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी।

यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं।।८।।

अतः इसमें संदेह नहीं कि कलिकालमें चित्तकी शुद्धिके लिये इस भागवतकथाके समान मर्त्यलोकमें पापपुंजका नाश करनेवाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है।।९।।

मुनिवर! आपलोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसारके कल्याणका विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला है।

आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथारूप सप्ताहयज्ञके द्वारा संसारमें कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं।।१०।।

सनकादिने कहा – जो लोग सदा तरह-तरहके पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचारमें ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाग्निसे जलते रहनेवाले कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।।११।।

जो सत्यसे च्युत, माता-पिताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णाके मारे व्याकुल, आश्रमधर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंकी उन्नति देखकर कुढ़नेवाले और दूसरोंको दुःख देनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।।१२।।

जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुस्त्रीगमन और विश्वासघात – ये पाँच महापाप करनेवाले, छल-छद्मपरायण, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।।१३।।

जो दुष्ट आग्रहपूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीरसे पाप करते रहते हैं, दूसरेके धनसे ही पुष्ट होते हैं तथा मलिन मन और दुष्ट हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।।१४।।

नारदजी! अब हम तुम्हें इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, उसके सुननेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं।।१५।।

पूर्वकालमें तुंगभद्रा नदीके तटपर एक अनुपम नगर बसा हुआ था।

वहाँ सभी वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्मोंका आचरण करते हुए सत्य और सत्कर्मोंमें तत्पर रहते थे।।१६।।

उस नगरमें समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मोंमें निपुण एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहता था, वह साक्षात् दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी था।।१७।।

वह धनी होनेपर भी भिक्षाजीवी था।

उसकी प्यारी पत्नी धुन्धुली कुलीन एवं सुन्दरी होनेपर भी सदा अपनी बातपर अड़ जानेवाली थी।।१८।।

उसे लोगोंकी बात करनेमें सुख मिलता था।

स्वभाव था क्रूर।

प्रायः कुछ-न-कुछ बकवाद करती रहती थी।

गृहकार्यमें निपुण थी, कृपण थी और थी झगड़ालू भी।।१९।।

इस प्रकार ब्राह्मण दम्पति प्रेमसे अपने घरमें रहते और विहार करते थे।

उनके पास अर्थ और भोग-विलासकी सामग्री बहुत थी।

घर-द्वार भी सुन्दर थे, परन्तु उससे उन्हें सुख नहीं था।।२०।।

जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तानके लिये तरह-तरहके पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दुःखियोंको गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे।।२१।।

इस प्रकार धर्ममार्गमें उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया, तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसीका भी मुख देखनेको न मिला।

इसलिये अब वह ब्राह्मण बहुत ही चिन्तातुर रहने लगा।।२२।।

एक दिन वह ब्राह्मणदेवता बहुत दुःखी होकर घरसे निकलकर वनको चल दिया।

दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक तालाबपर आया।।२३।।

सन्तानके अभावके दुःखने उसके शरीरको बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जानेके कारण जल पीकर वह वहीं बैठ गया।

दो घड़ी बीतनेपर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये।।२४।।

जब ब्राह्मणदेवताने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास गया और चरणोंमें नमस्कार करनेके बाद सामने खड़े होकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा।।२५।।

संन्यासीने पूछा – कहो, ब्राह्मणदेवता! रोते क्यों हो? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है? तुम जल्दी ही मुझे अपने दुःखका कारण बताओ।।२६।।

ब्राह्मणने कहा – महाराज! मैं अपने पूर्वजन्मके पापोंसे संचित दुःखका क्या वर्णन करूँ? अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जलांजलिके जलको अपनी चिन्ताजनित साँससे कुछ गरम करके पीते हैं।।२७।।

देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न मनसे स्वीकार नहीं करते।

सन्तानके लिये मैं इतना दुःखी हो गया हूँ कि मुझे सब सूना-ही-सूना दिखायी देता है।

मैं प्राण त्यागनेके लिये यहाँ आया हूँ।।२८।।

सन्तानहीन जीवनको धिक्कार है, सन्तानहीन गृहको धिक्कार है! सन्तानहीन धनको धिक्कार है और सन्तानहीन कुलको धिक्कार है!!।।२९।।

मैं जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा बाँझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उसपर भी फल-फूल नहीं लगते।।३०।।

मेरे घरमें जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है।

जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवनको ही रखकर मुझे क्या करना है।।३१।।

यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्याकुल हो उन संन्यासी महात्माके पास फूट-फूटकर रोने लगा।

तब उन यतिवरके हृदयमें बड़ी करुणा उत्पन्न हुई।।३२।।

वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाटकी रेखाएँ देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे।।३३।।

संन्यासीने कहा – ब्राह्मणदेवता! इस प्रजाप्राप्तिका मोह त्याग दो।

कर्मकी गति प्रबल है, विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना छोड़ दो।।३४।।

विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्मतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती।।३५।।

पूर्वकालमें राजा सगर एवं अंगको सन्तानके कारण दुःख भोगना पड़ा था।

ब्राह्मण! अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो।

संन्यासमें ही सब प्रकारका सुख है।।३६।।

ब्राह्मणने कहा – महात्माजी! विवेकसे मेरा क्या होगा।

मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ।।३७।।

जिसमें पुत्र-स्त्री आदिका सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है।

लोकमें सरस तो पुत्र-पौत्रादिसे भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है।।३८।।

ब्राह्मणका ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधनने कहा, ‘विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा चित्रकेतुको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था।।३९।।

इसलिये दैव जिसके उद्योगको कुचल देता है, उस पुरुषके समान तुम्हें भी पुत्रसे सुख नहीं मिल सकेगा।

तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थीके रूपमें तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशामें मैं तुमसे क्या कहूँ’।।४०।।

जब महात्माजीने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा – ‘इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा।।४१।।

तुम्हारी स्त्रीको एक सालतक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खानेका नियम रखना चाहिये।

यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाववाला होगा’।।४२।।

यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया।

वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्रीके हाथमें दे दिया और स्वयं कहीं चला गया।।४३।।

उसकी स्त्री तो कुटिल स्वभावकी थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखीसे कहने लगी – ‘सखी! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी।।४४।।

फल खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा।

फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घरका धंधा कैसे होगा?।।४५।।

और – दैववश – यदि कहीं गाँवमें डाकुओंका आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी।

यदि शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ भी पेटमें ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा।।४६।।

और कहीं प्रसवकालके समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणोंसे ही हाथ धोना पड़ेगा।

यों भी प्रसवके समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी?।।४७।।

मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननदरानी आकर घरका सब माल-मता समेट ले जायँगी।

और मुझसे तो सत्य-शौचादि नियमोंका पालन होना भी कठिन ही जान पड़ता है।।४८।।

जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चेके लालन-पालनमें भी बड़ा कष्ट होता है।

मेरे विचारसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं’।।४९।।

मनमें ऐसे ही तरह-तरहके कुतर्क उठनेसे उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पतिने पूछा – ‘फल खा लिया?’ तब उसने कह दिया – ‘हाँ, खा लिया’।।५०।।

एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिनको सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मनमें इसकी बड़ी चिन्ता है।।५१।।

मैं इस दुःखके कारण दिनोंदिन दुबली हो रही हूँ।

बहिन! मैं क्या करूँ?’ बहिनने कहा, ‘मेरे पेटमें बच्चा है, प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी।।५२।।

तबतक तू गर्भवतीके समान घरमें गुप्त-रूपसे सुखसे रह।

तू मेरे पतिको कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे।।५३।।

(हम ऐसी युक्ति करेंगी) कि जिसमें सब लोग यही कहें कि ‘इसका बालक छः महीनेका होकर मर गया’ और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस बालकका पालन-पोषण करती रहूँगी।।५४।।

तू इस समय इसकी जाँच करनेके लिये यह फल गौको खिला दे।’ ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभाववश जो-जो उसकी बहिनने कहा था, वैसे ही सब किया।।५५।।

इसके पश्चात् समयानुसार जब उस स्त्रीके पुत्र हुआ, तब उसके पिताने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुलीको दे दिया।।५६।।

और उसने आत्मदेवको सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है।

इस प्रकार आत्मदेवके पुत्र हुआ सुनकर सब लोगोंको बड़ा आनन्द हुआ।।५७।।

ब्राह्मणने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया और उसके द्वारपर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकारके मांगलिक कृत्य होने लगे।।५८।।

धुन्धुलीने अपने पतिसे कहा, ‘मेरे स्तनोंमें तो दूध ही नहीं है; फिर गौ आदि किसी अन्य जीवके दूधसे मैं इस बालकका किस प्रकार पालन करूँगी?।।५९।।

मेरी बहिनके अभी बालक हुआ था, वह मर गया है; उसे बुलाकर अपने यहाँ रख लें तो वह आपके इस बच्चेका पालन-पोषण कर लेगी।।६०।।

तब पुत्रकी रक्षाके लिये आत्मदेवने वैसा ही किया तथा माता धुन्धुलीने उस बालकका नाम धुन्धुकारी रखा।।६१।।

इसके बाद तीन महीने बीतनेपर उस गौके भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ।

वह सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था।।६२।।

उसे देखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये।

इस समाचारसे और सब लोगोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालकको देखनेके लिये आये।।६३।।

तथा आपसमें कहने लगे, ‘देखो, भाई! अब आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है! कैसे आश्चर्यकी बात है कि गौके भी ऐसा दिव्यरूप बालक उत्पन्न हुआ है।।६४।।

दैवयोगसे इस गुप्त रहस्यका किसीको भी पता न लगा।

आत्मदेवने उस बालकके गौके-से कान देखकर उसका नाम ‘गोकर्ण’ रखा।।६५।।

कुछ काल बीतनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये।

उनमें गोकर्ण तो बड़ा पण्डित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला।।६६।।

स्नान-शौचादि ब्राह्मणोचित आचारोंका उसमें नाम भी न था और न खान-पानका ही कोई परहेज था।

क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था।

वह बुरी-बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था।

मुर्देके हाथसे छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था।।६७।।

दूसरोंकी चोरी करना और सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था।

छिपे-छिपे वह दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता था।

दूसरोंके बालकोंको खेलानेके लिये गोदमें लेता और उन्हें चट कुएँमें डाल देता।।६८।।

हिंसाका उसे व्यसन-सा हो गया था।

हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुःखियोंको व्यर्थ तंग करता।

चाण्डालोंसे उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता।।६९।।

वेश्याओंके जालमें फँसकर उसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी।

एक दिन माता-पिताको मार-पीटकर घरके सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।।७०।।

इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला – ‘इससे तो इसकी माँका बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है।।७१।।

अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकटको कौन काटेगा? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःखके कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।।७२।।

उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और उन्होंने पिताको वैराग्यका उपदेश करते हुए बहुत समझाया।।७३।।

वे बोले, ‘पिताजी! यह संसार असार है।

यह अत्यन्त दुःखरूप और मोहमें डालनेवाला है।

पुत्र किसका? धन किसका? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपकके समान जलता रहता है।।७४।।

सुख न तो इन्द्रको है और न चक्रवर्ती राजाको ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनिको।।७५।।

‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञानको छोड़ दीजिये।

मोहसे नरककी प्राप्ति होती है।

यह शरीर तो नष्ट होगा ही।

इसलिये सब कुछ छोड़कर वनमें चले जाइये।।७६।।

गोकर्णके वचन सुनकर आत्मदेव वनमें जानेके लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा! वनमें रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो।।७७।।

मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अबतक कर्मवश स्नेहपाशमें बँधा हुआ अपंगकी भाँति इस घररूप अँधेरे कुएँमें ही पड़ा रहा हूँ।

तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो’।।७८।।

गोकर्णने कहा – पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिरका पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादिको ‘अपना’ कभी न मानें।

इस संसारको रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तुको स्थायी समझकर उसमें राग न करें।

बस, एकमात्र वैराग्यरसके रसिक होकर भगवान् की भक्तिमें लगे रहें।।७९।।

भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसीका आश्रय लिये रहें।

अन्य सब प्रकारके लौकिक धर्मोंसे मुख मोड़ लें।

सदा साधुजनोंकी सेवा करें।

भोगोंकी लालसाको पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओंके रसका ही पान करें।।८०।।

एवं सुतोक्तिवशतोऽपि गृहं विहाय यातो वनं स्थिरमतिर्गतषष्टिवर्षः ।

युक्तो हरेरनुदिनं परिचर्ययासौ श्रीकृष्णमाप नियतं दशमस्य पाठात्।।८१

इस प्रकार पुत्रकी वाणीसे प्रभावित होकर आत्मदेवने घर छोड़ दिया और वनकी यात्रा की।

यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्षकी हो चुकी थी, फिर भी बुद्धिमें पूरी दृढ़ता थी।

वहाँ रात-दिन भगवान् की सेवा-पूजा करनेसे और नियमपूर्वक भागवतके दशमस्कन्धका पाठ करनेसे उसने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।।८१।।

इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये विप्रमोक्षो नाम चतुर्थोऽध्यायः।।४।।


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