गणेश पुराण – षष्ठ खण्ड – अध्याय – 6


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गणेश पुराण खण्ड लिंक - प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8)


नन्दी का पराभव

एक दिन शिवजी ने मस्तक से चन्द्रमा उतारकर रख दिया था, जिसे लेकर गणेशजी बालकों के साथ खेलने के लिए कुछ दूर चले गये।

भगवान् शंकर ने चन्द्रमा को न देखकर गणों से उसके विषय में पूछा तो वे बोले- ‘प्रभो! उसे तो आपके पुत्र उठा ले गये हैं।

हमने समझा कि आपकी आज्ञा से ही ले जा रहे होंगे, इसीलिए उन्हें टोका भी नहीं।’

शिवजी ने एक गण को आदेश दिया- ‘जाओ, उससे चन्द्रमा ले आओ।’

गण ने जाकर मयूरेश से चन्द्रमा देने को कहा तो वे बोले- ‘अभी तो इसके साथ खेल रहा हूँ, बाद में दूँगा।’

उसने लौटकर शिवजी को उनका उत्तर बता दिया तो उन्होंने कई गणों को एक साथ भेजते हुए कहा- ‘यदि वह चन्द्रमा दे दे तो ठीक अन्यथा यहाँ ले आओ।’

शिवगणों ने गणेशजी से चन्द्रमा माँगा तो उन्होंने नहीं दिया।

इसपर गणों ने कहा-‘तो स्वयं अपने पिताजी की सेवा में उपस्थित होकर कह दें।’

उन्होंने उत्तर दिया- ‘मैं तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाली अत्यन्त महिमामयी माता शिवा का पुत्र हूँ।

तुम जैसे सामान्य लोग मुझे कैसे ले जा सकते हो?’

यह कहकर उन्होंने दीर्घ निःश्वास छोड़ा, जिससे विवश हुए शिवगण वायु में पत्तों के समान उड़ते हुए शिवजी के समक्ष जाकर गिरे।

उनकी दशा देखकर शिवजी को क्रोध आ गया।

उन्होंने प्रमथादिगण को आज्ञा दी-‘जाओ, गणेश को पकड़ लाओ।’

प्रमथादिगण ने आज्ञा पालनार्थ गणेशजी से जाकर कहा कि ‘मयूरेश्वर! आपके पिता बुलाते हैं, तुरन्त चलिए।’

इसपर अस्वीकृति-सूचक सिर हिला दिया।

गणों ने कहा- ‘हम आपको बलपूर्वक ले चलेंगे।’

गणेशजी ने उनका उपक्रम देखा तो उन्हें मोहित कर स्वयं अन्तर्धान हो गये।

अब वे वन-वन में जाकर उनकी खोज करने लगे।

उन्हें कभी तो गणेशजी दिखाई दे जाते और कभी दौड़ते हुए अदृश्य हो जाते।

इस प्रकार वे जब अधिक थक गये, तब गणेशजी एक स्थान पर जा बैठे और गणों की पकड़ में आ गये।

किन्तु उन्होंने अपना भार अधिक बढ़ा दिया।

गणों ने उन्हें बाँधकर ले जाने का प्रयत्न किया, किन्तु वे उन्हें उठा ही नहीं सके।

बहुत प्रयत्न करने पर भी असफल रहने पर उन्होंने शिव जी से कहा- ‘भगवन्! हमने उन्हें लाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु मिलकर भी न उठा सके।

इसलिए अपनी असफलता पर हमें स्वयं लज्जा आती है!’

शिवजी हँसे, उन्होंने नन्दीश्वर को बुलाकर कहा- ‘नन्दी! आश्चर्य है कि अकेला गणेश इतना भारी हो गया है कि उसे यहाँ ले आने में कोई भी सफल नहीं हुआ।

अच्छा, अब तुम जाकर इसे साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति के साथ लेकर आओ।’शिवजी की आज्ञा पाकर नन्दीश्वर चले और मुनिकुमारों के साथ खेलते हुए गणेशजी से जाकर बोले- ‘गणपते! आपके पूज्य पिताजी बुलाते हैं, इसलिए शीघ्र ही वहाँ चलिए।’

उन्होंने अस्वीकृति-सूचक सिर हिलाया तो नन्दीश्वर बोले- ‘यदि स्वेच्छा से न चलोगे तो मैं बलपूर्वक ले चलूँगा।

मुझे सामान्य गणों के या प्रमथादि के समान न समझना।’

नन्दी का अहंभाव देखकर उन्हें हँसी आ गई और तब उन्होंने तीव्र वेग से निःश्वास छोड़ा।

फिर क्या था, नन्दीश्वर को जोर की एक पटक लगी और गहरी चोट के कारण मूर्च्छा आ गई।

जब चेत हुआ तो उठकर शिवजी के पास जाकर कुछ कहना ही चाहते थे कि उनकी दृष्टि शिवजी की गोद में बैठे गणेशजी पर गई।

उनके पास चन्द्रमा नहीं था, वह तो शिवजी के भाल पर ही सुशोभित था।

लज्जित नन्दी ने शिवजी से निवेदन किया ‘प्रभो! आपके यह पुत्र आपके ही समान महिमावान हैं।

आज से हम इन्हें भी अपना स्वामी मानते हैं।

तभी समस्त शिवगण उनकी स्तुति कर जयघोष करने लगे- ‘गणेश्वर, गणपति, गणराज की जय! गणेश की जय! मयूरेश्वर की जय!’


इन्द्र का गर्व खण्डन

मयूरेश की तेरहवीं वर्षगाँठ थी।

गौतमादि ऋषियों ने वहाँ आकर इन्द्रयाग कराया।

तभी वहाँ कल-विकल नामक दो राक्षस आकर अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगे।

उन्होंने भैंसे का प्रचण्ड रूप धारण किया हुआ था।

गणराज ने उनके मस्तक पर वज्र के समान मुष्टि प्रहार किया, जिससे वे अत्यन्त व्याकुल होकर धरती पर गिर गये और रक्त वमन करते हुए इहलीला से मुक्त हो गये।

इन्द्रयाग में गणेशजी ने देवराज इन्द्र की उपेक्षा कर उन असुरों को मारा था।

पहले तो इन् अपनी उपेक्षा का कारण न समझ सके, किन्तु असुरों के मारे जाने पर उन्हें अपनी भूल का आभास हुआ और उन्हें मयूरेश्वर की स्तुति कर प्रसन्न किया।


गणराज की बारात की तैयारी

गणेशजी पन्द्रह वर्ष के हो गये।

इस आयु तक वे अनेकों राक्षसों का संहार कर चुके थे, इस कारण उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गई थी।

उनके अद्भुत कर्मों को देखकर देवगण प्रसन्न हो रहे थे।

उनकी विवाह योग्य अवस्था देखकर जगज्जननी पार्वती जी ने एक दिन शिवजी से निवेदन किया- ‘प्रभो! गणेश अब विवाह योग्य प्रतीत होता है, इसलिए कोई सुन्दर, सुशील एवं गुणवती कन्या देखकर इसका विवाह कर देना चाहिए।’

शिवजी ने कहा- ‘प्रिये! मैं भी यही सोचता था।

परन्तु यह बाधा सम्मुख है कि इसके समान गुणवाली कन्या की खोज कहाँ की जाये?’

यह विचार चल ही रहा था कि महर्षि नारदजी वीणा बजाते हुए वहाँ आ पहुँचे।

शिव और शिवा ने उनका अत्यन्त स्वागत-सत्कार कर बैठने को श्रेष्ठ स्थान दिया, तभी शिवजी ने कहा- ‘देवर्षि! आज तो आपके दर्शन बहुत समय के पश्चात् हुए हैं।’

नारद बोले- ‘हाँ प्रभो! कुछ इधर आना ही नहीं हुआ।

फिर आप तो त्रिसन्ध्या क्षेत्र में निवास कर रहे थे, सहसा ही उस स्थान को छोड़कर यहाँ ले आये।

ब्रह्मदेव ने आपके यहाँ होने की बात मुझे बताई तो सेवा में उपस्थित हो गया।’

इसी प्रकार वार्तालाप चलने लगा।

तभी शिवजी बोले- ‘मुनिवर! मयूरेश अब विवाह योग्य प्रतीत होता है।

इसके अनुकूल कोई गुणवती कन्या बताने की कृपा कीजिए।’

देवर्षि बोले- ‘ब्रह्माजी ने इसीलिए तो मुझे वहाँ भेजा है।

उनकी दो कन्याएँ हैं-सिद्धि और बुद्धि।

सब प्रकार से सुयोग्य अत्यन्त सौन्दर्यमयी और गुणों के कहने ही क्या।

मेरा निवेदन है कि गणेशजी के लिए आप उन दोनों कन्याओं को स्वीकार करने की कृपा करें।

शिव-शिवा दोनों ही प्रसन्न हुए।

विवाह की तिथि निश्चित हुई और दोनों ओर से निमन्त्रण-पत्र भेजे जाने लगे।

सर्वत्र आनन्द छा गया।

देवगण, ऋषिगण, शिवगण और मुनिकुमार सभी प्रसन्न हो उठे।

समय पर वर-यात्रा की तैयारी आरम्भ हुई।

बारात बड़ी विचित्र थी।

सभी देवता अपने-अपने अद्भुत वाहनों पर सवार होकर चल दिए।

इन्द्र ऐरावत पर, शिवा-शिवजी नन्दी पर तथा गणेशजी मयूर पर बैठे थे।

पवनदेव ने पुष्पों का यान जैसा बनाया और उसपर बैठकर उड़ चले।

समस्त बाराती समुदाय मस्ती से झूम रहा था।

यह वर यात्रा गण्डकी नगर की ओर जाने वाले मार्ग से जा रही थी।

मध्य में सात करोड़ दैत्यों का एक शिविर लगा था।

वर यात्रा के विशाल जनसमूह को देखकर असुरों को कौतूहल हुआ।

बोले- ‘कौन हो तुम लोग? कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ जा रहे हो?’

समूह में से कुछ ने बताया- ‘मयूरेश क्षेत्र में रहते हैं, ब्रह्माजी की पुत्रियों का विवाह है, वहाँ बारात लेकर जा रहे हैं।’

असुर उद्दण्ड और युद्धप्रिय थे, बोले- ‘दैत्यराज उग्रेक्षण की आज्ञा है तुम्हारे पास? क्या तुम नहीं जानते कि उनकी आज्ञा के बिना कोई जनसमूह इधर से उधर हलचल नहीं कर सकते।

चाहे वह वर-यात्रा हो या तीर्थ-यात्रा।’देवगणों ने समझाते हुए कहा- ‘यह कोई ऐसा कार्य नहीं है, जिसके लिए दैत्यराज की अनुमति आवश्यक होती।

इसलिए व्यर्थ ही शुभ-कार्य में विघ्न मत डालिए।’

उद्धत दैत्य सेनापति बोला- ‘बकवाद न करो, हमको जैसा आदेश है वही करेंगे।

यहाँ से आगे बढ़ने का विचार छोड़ो और चुपचाप वापस लौट जाओ।’

गणराज को उसकी उद्दण्डता अच्छी नहीं लगी।

वे तीव्र स्वर में बोले- ‘व्यर्थ बातें मत बनाओ, चुपचाप मार्ग छोड़ दो, अन्यथा सेना सहित नष्ट हो जाओगे।’दैत्य-सेनापति ने कहा- ‘आज बड़ा अच्छा दिन है।

हमारा आहार स्वयं हमारे पास आ गया है।

तुम्हारे जैसे मनुष्यों को ही तो हम खा जाने के लिए ढूँढ़ते हैं।’

तदुपरान्त उसने आक्रमण का आदेश दिया।

उधर से भी शिवगण आगे बढ़े और देवगण उनकी सहायता करने लगे।

बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा।

मयूरेश्वर ने दर्भास्त्र के प्रयोग का आदेश दे दिया।

मुनिकुमारों ने हाथ में जल लेकर दर्भास्त्र का संकल्प-जल छोड़ा।

बस, फिर क्या था! दर्भ के सूक्ष्म खण्ड असुरसेना में फैलकर उनके आँख, कान, नाक आदि मार्गों से श्वास के साथ शरीर में प्रविष्ट होकर हृदयों को पीड़ित करने लगे।

दर्भ-खण्डों ने असुरों को व्याकुल कर दिया।

कुछ बहरे हुए, कुछ अन्धे, कुछ का श्वास-मार्ग छिल गया, कुछ के फुफ्फुस और हृदय विदीर्ण हो गये, इस कारण रक्त वमन करने लगे।

इस प्रकार कुछ ही क्षणों में वह राक्षसी सेना पूर्ण रूप से विनष्ट हो गई।

बालकों ने कहा- ‘देव! आपकी आज्ञा से हमने विशाल दैत्यसेना का बात की बात में संहार कर दिया।

अब और जो कहो वहीं करें।’

वरयात्रा पुनः पूर्ववत् आगे बढ़ी।

धीरे-धीरे इतनी दूर पहुँच गये कि वहाँ से उग्रेक्षण की राजधानी गण्डकी नगर एक योजन दूर रह गई।

वहाँ गणेशजी अपने वाहन मयूर से उतर पड़े।


गणपति की प्रतिज्ञा

यहाँ गणेशजी ने एक वृहद् सिंहासन की स्थापना की जो अत्यन्त सुन्दर, दिव्य तथा भव्य था।

उसपर उन्होंने शिव-शिवा और प्रमुख ऋषियों को बैठाया और अन्य सबको सिंहासन के आगे बैठने की व्यवस्था की।

इस प्रकार समस्त जनसमूह वहाँ विश्राम के लिए ठहर गया।

तभी मयूरेश बोले- ‘जनक जननि, ऋषिगण, देवगण एवं शिवगणादि! अभी गण्डकी नगर में अनेक देवताओं के साथ भगवान् श्रीहरि रह रहे हैं।

जब तक वे मुक्त न हो जायें तब तक विवाहोत्सव में कोई आनन्द नहीं आयेगा।

इसलिए मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं उन्हें मुक्त कराये बिना विवाह नहीं करूँगा।

इसलिए कोई बुद्धिमान् पुरुष दैत्यराज के पास जाकर उन्हें मुक्त करने का सन्देश दे और वह उन्हें मुक्त करना स्वीकार न करे तो हमें उससे युद्ध करना होगा।’

ब्रह्माजी ने ‘साधु-साधु’ कहकर गणेश की प्रशंसा की और पुष्पदन्त

को दूत बनाकर भेजने का प्रस्ताव किया।

किन्तु पुष्पदन्त ने कहा- ‘यदि मैं दैत्यराज के समक्ष गया तो मुझे उसकी बातों से शीघ्र ही क्रोध आ जायेगा, इस कारण मैं नीति की रक्षा करने में असमर्थ रहूँगा।

मैं तो उससे युद्ध-क्षेत्र में ही मिलना चाहता हूँ।

इसलिए उसके पास किसी अन्य को भेजना ही उचित होगा।’

उसकी बात सुनकर विचार चलने लगा कि अन्य किस को भेजा जाय? बहुत विचार के पश्चात् मयूरेश ने ही समाधान किया-‘मेरे विचार से तो नन्दीश्वर को भेजना चाहिए।

यह अत्यन्त वीर, धीर, गम्भीर, बुद्धिमान्, पराशय को शीघ्र समझने वाले तथा चतुर हैं।

इनसे अधिक उपयुक्त अन्य कोई व्यक्ति प्रतीत नहीं होता।’

शिवजी ने सहमति प्रकट की- ‘पुत्र! तुम्हारा चुनाव ठीक है।

नन्दी को विविधप्रकार के रत्नाभूषण दो।

आदेश-पालन के पश्चात् गणपति ने कहा- ‘नन्दीश्वर! वहाँ जाकर देवगण की मुक्ति का ही उद्देश्य ध्यान में रखें।

जाइए, आपको सफलता प्राप्त हो।’नन्दीश्वर ने शिव-शिवा और गणेश्वर को प्रणाम कर वायुवेग से प्रस्थान किया और उग्रेक्षण के सभाद्वार पर द्वारपाल को अपना परिचय देकर दैत्यराज से मिलने की बात कही।

द्वारपाल ने जाकर सूचना दी तो उसने उन्हें बुला लाने की आज्ञा दे दी।

नन्दीश्वर ने उस विशाल भव्य एवं सुसज्जित सभा में प्रवेश किया।

दैत्यों ने सूर्य के समान देदीप्यमान एवं सुदृढ़ काय नन्दीश्वर को देखा तो भयभीत हो गये।

सभा में नीरवता छा गई।

दैत्यराज का संकेत मिलने पर नन्दीश्वर उसे अभिवादन कर आसन पर बैठ गये।

फिर उन्होंने कहा- ‘दैत्यराज! मैं अनेक राजसभाओं में जा चुका हूँ और सर्वत्र ही आगत व्यक्ति का सम्मान करने की नीति देखी।

किन्तु तुम लोग अत्यन्त बलवान्, सुन्दर और ऐश्वर्य सम्पन्न होते हुए भी भेड़िये के समान बुद्धि रहित हो, इसलिए किसी बुद्धिमान् मनुष्य का आदर-सत्कार करना भी नहीं जानते।

यह धर्म केवल राजा का ही नहीं, अमात्यादि वर्ग एवं प्रजावर्ग का भी है।

इससे स्पष्ट है कि तुम्हारी समस्त प्रजा, सभासद और अमात्यवर्ग भी मूर्ख ही हैं।’

दैत्यराज ने कुछ विनम्रता से कहा- ‘वृषश्रेष्ठ! तुम्हारी बुद्धि ब्रह्मा के समान, तेज अग्नि के समान और गति वायु के समान प्रतीत होती है।

तुम कौन, कहाँ से आये और आने का क्या उद्देश्य है?’

नन्दीश्वर बोले- ‘असुरराज! मैं भगवान् शूलपाणि का वाहन एवं प्रमुख गण नन्दी हूँ।

उनके यहाँ भगवान् गणेश ने धरती का भार उतारने के लिए अवतार धारण किया है।

वे प्रभु सर्व समर्थ और समस्त संसार के उत्पत्ति, पालन और विनाश करने वाले हैं।

उन्होंने अनेक दैत्यों का संहार किया है, यह तथ्य तुमसे छिपा नहीं है।

इसलिए तुम्हें उनका अनुगंत होना चाहिए।

उनका सन्देश है कि तुम सब बन्दी देवगण को मुक्त कर दो।’

‘देवगण को मुक्त कर दूँ? क्यों इसलिए कि वे पुनः सक्रिय हो जायें और हमारा अनिष्ट करने लगें?’

उत्तेजित हुए उग्रेक्षण ने प्रश्न किया।

नन्दी ने कहा- ‘सभी को स्वतन्त्र रहने का अधिकार है।

तुमने उन्हें बन्दी बनाकर अत्याचार किया है।

अपने को संयत करके पुनः विचार कर देखो कि तुम जो कुछ कह रहे हो, वह न्याय है या अन्याय?’

उग्रेक्षण-‘मैं जो भी कुछ करता हूँ, वह सब न्याय है और उसमें हस्तक्षेप करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है।

अपने गणेश्वर से कहना कि अधिक उछल-कूद न करे।

मेरी शरण में आ जाय तो उसे मृत्यु का भय नहीं रहेगा।

अन्यथा वह मारा जायेगा।’

नन्दी पुनः बोले- ‘दैत्यराज! कहाँ वे सर्वात्मा एवं सर्वेश्वर प्रभु और कहाँ तुम सांसारिक प्राणी! तुम्हारी उनसे कोई तुलना नहीं हो सकती।

इसलिए मेरी बात मानकर उनकी आज्ञा का तिरस्कार न करो।

जो देवता तुम्हारे यहाँ बन्दी हैं, उन्हें मुक्त कर दो, अन्यथा व्यर्थ ही युद्ध में भीषण संहार उपस्थित होगा।’

उग्रेक्षण कुछ क्रोध करता हुआ-सा बोला- ‘मैं तो तुम्हें बुद्धिमान् समझता था, किन्तु अब समझा कि तुम निरे बुद्धिहीन मूर्ख हो।

अरे, जिन्हें बन्दी बनाया है उन देवताओं को मैं कैसे स्वतन्त्र कर सकता हूँ? तुम मेरे पौरुष से अनभिज्ञ हो, इसलिए वैसी बातें करते हो।

सोचो, भला किसी व्याघ्र के समक्ष शृगाल की क्या बिसात?’

नन्दीश्वर हँस पड़े, बोले- ‘असुरराज! मूखौँ जैसी बात न कर अपने उन महापराक्रमी वीरों की ओर ध्यान दे, जो गणेश्वर के हाथों बात की बात में मार दिए गये।

क्या वे तेरी अपेक्षा कम शक्तिशाली थे? देख, नीतिकुशल वह है, जो समयोचित कार्य करे।

तुझे भगवान गणेश्वर की आज्ञा मानकर अपने प्राणों की रक्षा करना ही कर्त्तव्य है।’

दैत्यराज के नेत्र लाल हो गये, उसने क्रोधपूर्वक गर्जना करते हुए कहा- ‘मूर्ख बैल! तू यहाँ शांतिदूत बनकर आया है या उपदेश देने? मैं तुझे दूत समझकर ही कुछ नहीं कहता, अन्यथा तेरे प्राण ले लेता।

अब उस दुधमुँहे बालक की प्रशंसा मेरे सामने नहीं करना।’

नन्दीश्वर भी गर्ज उठे- ‘मूढ़! पापी! अधम! तेरी बुद्धि मारी गई और काल सिर पर सवार है, इसलिए व्यर्थ प्रलाप कर रहा है।

तेरे मुख से मयूरेश्वर की निन्दा सुन अकेला मैं ही तुझे मार डालने में समर्थ हूँ, किन्तु स्वामी ने ऐसा करने की मुझे आज्ञा नहीं दी है।’

यह कहकर नन्दीश्वर ने घोर हुंकार की, जिससे समस्त दैत्यसभा भयभीत हो गई।

अनेक राक्षस अकारण ही मूच्छित हो गए और अनेक इधर-उधर छिप गए।

यह देखकर घोर गर्जना करते ये नन्दीश्वर दैत्यसभा से उठकर वायु वेग से चल दिए।


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