गणेश पुराण – पंचम खण्ड – अध्याय – 7


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धूम्राक्ष-पत्नी जुम्भा का वध

जुम्भा धूम्राक्ष की पत्नी थी।

वह राक्षसी अपने पति की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए महोत्कट के रक्त की प्यासी हो रही थी।

उसने सुन्दर देवी का रूप बनाया शरीर पर पीताम्बर, हाथों में कंकण, कण्ठ में रत्नहार तथा अन्यान्य आकर्षक अलंकार धारण किये और महोत्कट के पास जाकर कोमल वाणी में कहने लगी- ‘मुनिकुमार! तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम्हारे जैसे शूर-वीर पुत्र को जन्म दिया।

मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, क्योंकि तुमने अनेक प्रबल असुरों को मारने का शुभ कार्य किया है।

तुम्हारे घोर श्रम को देखकर मैं तुम्हारे लिए यह श्रमनाशक सुगन्धित तेल लाई हूँ।

आओ, इसे अपने शरीर पर लगवा लो।’

उसके दिव्य रूप और मधुर वाणी में निवेदन सुनकर महोत्कट ने उसकी बात मान ली और तेल लगवाने लगे।

परन्तु वह तेल तो विष-मिश्रित था इसलिए शरीर पर लगते ही दाह करने लगा।

यह देखकर उन्होंने निकट पड़ा हुआ एक नारियल उठाकर उसके सिर पर दे मारा, जिससे उसका मस्तक विदीर्ण हो गया और वह तड़पती हुई अपने वास्तविक रूप में आकर प्राण विहीन हो गई।

उसका रूप देखकर सभी जान गये कि यह धूम्राक्ष की पत्नी थी और मुनिकुमार को मारने के उद्देश्य से यहाँ आई थी।

उसके मरने से सभी को प्रसन्नता हुई।

अगले दिन काशीनरेश उन कश्यप कुमार को लेकर राजसभा में गये।

सभी अमात्यों, जन-प्रतिनिधियों, मित्रों, परिवारजनों आदि ने उनका स्वागत किया।

महाराज ने मुनि-कुमार सहित राजसिंहासन पर विराजमान होकर वह सभी बातें बताईं कि वे युवराज का विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र महोत्कट को इस कार्य के लिए साथ भेजा।

मार्ग में धूम्राक्ष और उसके पुत्रों के वध तथा अन्य राक्षसों द्वारा आक्रमण होने पर उनके संहार एवं नगर में भी असुरों के उपद्रव और उन सभी के निष्प्राण होने की पूरी चर्चा करते हुए कश्यप कुमार की भूरि-भूरि प्रशंसा की और यह भी कहा कि इन्हीं मुनि-पुत्र ने मेरी प्राण- रक्षा की, अब भी नगर की रक्षा कर रहे हैं।

इसके पश्चात् राजा ने कहा- ‘सभासदगण! मेरी इच्छा है कि युवराज के विवाह का दिन निश्चित कर लिया जाय, इसके लिए विद्वान् दैवज्ञ को सादर बुलाना चाहिए।’

तभी एक वरिष्ठ अमात्य ने विनीत स्वर में कहा- ‘महाराज! धृष्टता क्षमा की जाय, जबसे यहाँ मुनिकुमार पधारे हैं तभी से कोई-न-कोई नवीन उपद्रव देखने में आ जाता है।

मैं समझता हूँ कि जब तक यहाँ निवास करेंगे तब तक शान्ति होना भी सम्भव नहीं है।

इसलिए मेरे मत में तो अभी वैवाहिक कार्यक्रम को एक मास के लिए स्थगित रखना ही उपयुक्त होगा।’

महाराज ने अमात्य का सुझाव स्वीकार कर लिया।

सभा विसर्जन होने पर विनायक के साथ राजभवन में आकर भोजन किया और शयन-काल में दोनों अपने-अपने शयन कक्ष में चले गये।


अनेक महाबली असुरों का संहार वर्णन

घोर रात्रि थी।

काशी नगरी अन्धकार की चादर ओढ़े मौन एवं सुप्तावस्था में थी।

काशिराज, महोत्कट, सभी अमात्य सेनाधिकारी एवं प्रजाजनादि सभी निश्चित हुए सो रहे थे।

किसी को पता नहीं था कि रात्रि में क्या होने वाला है?

काशी के निकट ही नरान्तक की दूसरी बार भेजी गई सेना ने आकर पड़ाव डाल दिया।

उसके तीन क्रूर सेनानायक ज्वालामुख, व्याघ्र और दारुण नामक विकराल असुर काशी को विध्वंस करने की योजना बनाने में लगे थे।

ज्वालामुख ने दारुण का सहयोग लिया और नगरी के चारों ओर भीषण अग्नि प्रज्वलित कर दी।

उसकी तीव्र लपटें नगर को जलाने लगीं।

उस भयंकर अग्नि को मुख फैलाये हुए देखकर प्रजावर्ग त्रस्त हो उठा।

नगर में कोलाहल मच गया।

सभी स्त्री-पुरुष नगर से भाग जाना चाहते थे, किन्तु बच निकलने का कहीं कोई मार्ग दिखाई नहीं देता था।

यदि कोई किसी प्रकार निकल भागता तो व्याघ्घ्रमुख और उसके सैनिक प्राण ले लेते।

इस प्रकार अत्यन्त त्रस्त काशी के नागरिकों में हाहाकार मच उठा।

यमराज ने सब ओर जाकर देखा तो सभी सीमाएँ भयंकर ज्वालमाला की लपेट में थीं।

वे व्याकुल होकर सोचने लगे- ‘यह दुर्भाग्य की ही बात है कि मैं इस विनायक को यहाँ ले आया।

अब तो सर्वस्व ही नष्ट होता दिखाई देता है।’

अब वे दुर्ग पर चढ़ गये।

सब ओर भीषण अग्नि ही अग्नि देखकर उनकी बुद्धि कुण्ठित हो गई।

फिर सोचा, ‘महोत्कट को ही क्यों न बुलाया जाय?’

राजाज्ञा पाकर अमात्यगण उन्हें लाने के लिए दौड़े, किन्तु वे उस समय अपने कक्ष में नहीं थे।

उधर महोत्कट सजग थे।

वे असुरों की समस्त गतिविधियों पर ध्यान दिए हुए थे।

उन्हें राजा की अधीरता का भी पता था।

उधर समस्त प्रजा भी त्राहि-त्राहि करती हुई उन्हीं मुनिकुमार को पुकार रही थी।

उन्होंने योगमाया का आश्रय लिया।

रात्रि व्यतीत होने जा रही थी, पूर्व के क्षितिज में लाल-लाल रवि के दर्शन हो रहे थे।

महोत्कट व्याघ्घ्रमुख की ओर दौड़ पड़े और उसे पकड़कर अविलम्ब धरती पर पछाड़ दिया तथा शरीर को बीच में से चीरकर आकाश की ओर दूर फेंक दिया।

फिर वे ज्वालामुख के पास जा पहुँचे और उसे भी पकड़ कर चीर डाला।

तदुपरान्त दारुण को भी प्राणहीन कर दिया।

यह देखकर राक्षसी सेना में हाहाकार मच गया।

उन्होंने सम्मिलित रूप से महोत्कट पर आक्रमण कर दिया, किन्तु उन्होंने शस्त्रों की वर्षा करके समस्त सेना का संहार कर डाला।

थोड़े से राक्षस ही प्राण बचाकर भागने में सफल हो सके।

असुरदल के छिन्न-भिन्न होने पर महोत्कट ने घोर गर्जना की, जिसे सुनकर समस्त प्रजा हर्षित हो गई।

सभी ने देखा कि अग्नि का कहीं पता भी नहीं था।

तभी महोत्कट वहाँ आ गए और ध्वस्त भागों का अवलोकन करने लगे।

उसी समय एक योजना बनाई गई, जिसमें नागरिकों और राजसैनिकों के सहयोग से और महोत्कट की अद्भुत शक्ति से उन भागों का नव-निर्माण हो गया।

इस प्रकार काशी नगरी अब पहिले से भी अधिक शोभायमान हो गई।

अब उन्होंने काशीनरेश को अधिक सावधान रहने को कहा तथा उन्हें और उनके सेनाधिकारियों को विविध प्रकार शस्त्रास्त्रों के सञ्चालन और प्रक्षेपण की शिक्षा दी।

इससे काशी की राजधानी सैन्य तैयारियों में आत्मनिर्भर और सशक्त हो गई।

इस प्रकार काशी के वासियों को भगवान् विनायक की कृपा से पूर्ण ऐश्वर्य, बल-सम्पन्नता और दूर-दूर तक सुयश की प्राप्ति हुई।

काशीनरेश भी महोत्कट के निवास करने से धन्य हो गए।

उन्हीं के कारण उनकी राजधानी की अत्यन्त विख्यात कीर्ति हो गई।

राजा ने उनका अत्यन्त आभार मानते हुए भक्तिभाव सहित पूजन कर ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से धन-रत्नादि भेंट किये।


ज्योतिषी रूप वाला मायावी असुर का संहार

एक दिन नित्यकर्मादि से निवृत्त होने के पश्चात् विनायकदेव अन्य बालकों के साथ क्रीड़ार्थ बाहर निकल गये।

उधर काशिराज राजसभा में जाकर अपने सिंहासन पर आसीन हुए ही थे कि तभी वहाँ एक लम्बी मूँछ-दाढ़ी वाले ज्योतिषी जी पधारे।

उनके शरीर पर बहुमूल्य रेशमी वस्त्र और सिर पर बहुत बड़ी पगड़ी थी।

ललाट पर गोपीचन्दन, कण्ठ में रुद्राक्ष की माला तथा हाथ में एक बड़ी पुस्तक थी।

राजा ने ज्योतिषी को देखते ही उठकर प्रणाम किया और अपने निकटस्थ उच्च आसन पर बैठाकर उनके परिचय की जिज्ञासा की।

तब ज्योतिषी ने उत्तर दिया- ‘राजन्! मैं गन्धर्व-लोक से आ रहा हूँ।

मुझे हेम ज्योतिर्विद् कहते हैं।

भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का हाल मुझे विदित है।’

राजा बोले- ‘अहोभाग्य! आपके दर्शन करके मैं धन्य हो गया।

दैवज्ञ श्रेष्ठ! आज्ञा कीजिए कि आपकी क्या सेवा करूँ?’

ज्योतिषी ने कहा- ‘महाराज! मुझे अपना तो कोई कार्य नहीं है, किन्तु आपके कल्याण की इच्छा से ही इधर आ गया हूँ।

मैंने सोचा कि पहिले आपको अपने राज्य शासन में कभी किसी बाधा का सामना नहीं करना पड़ा था, जो अब कुछ ही दिनों से करना पड़ रहा है।

नित्य प्रति नये-नये उपद्रव हो रहे हैं यहाँ।’

काशीनरेश ज्योतिषी की बातों से बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई।

तभी ज्योतिषी ने पुनः कहना आरम्भ किया- ‘राजन्! सँभल जाओ, अभी भविष्य में बहुत हानि होने को है।

यदि कहो तो शान्ति का कुछ उपाय बताऊँ।’

उन्होंने उत्सुकता से पूछा- ‘अवश्य बताइये ज्योतिषी जी! मैं भरसक आपकी आज्ञा-पालन का यत्न करूँगा।’

‘तो सुनो’ ज्योतिषी ने आँखें नचाते हुए कहा- ‘आपके यहाँ महोत्कट नामक कोई मुनिकुमार आया है, इसे यहाँ से हटा देने से ही राज्य में कुशल और शान्ति हो सकती है।

क्योंकि उसका आगमन आपके राज्य के लिए शुभ नहीं है।

योग बताता है कि किसी दिन यही तुम्हारे राज्य को छीन लेगा।’

काशीनरेश ज्योतिषी की बात से सहमत नहीं हुए।

उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा- ‘दैवज्ञ! मैं तो समझता हूँ कि आपके गणित में कहीं भूल है, अन्यथा आपने जो कहा है, वह मुझे तो असम्भव प्रतीत होता है।

आप अभी महोत्कट के स्वभाव एवं शक्ति से अपरिचित हैं।

देखिए, जबसे वे काशी में आये हैं तभी से यहाँ का ऐश्वर्य बढ़ा है और प्रजा भी बहुत सुखी है।

उन्होंने अनेक महाबली असुरों को मारकर मेरी और प्रजा-जनों की जो रक्षा की है, उसके उस उपकार को हम कैसे भूल सकते हैं?

‘राजन्!’ ज्योतिषी ने समझाने की चेष्टा की- ‘संसार परिवर्तनशील है, मनुष्यों के विचार भी क्षण-क्षण में बदल जाते हैं।

आज जो व्यक्ति हमें अपने प्रति उपकारी प्रतीत हो रहा है कल वही हमारा अपकार कर सकता है।

उसपर भी एक योग भी तो ऐसा ही पड़ा है कि आपको उससे विश्वासघात का अवसर आ सकता है।’

महाराज बोले- ‘ज्योतिषी जी! महोत्कट को इसी राज्य की इच्छा क्यों होगी? जबकि वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि की भी रचना कर सकते हैं।

इन्द्र को अनिन्द्र तथा असमर्थ को समर्थ बनाना भी उनके द्वारा सम्भव है।

यह तो सभी जानते हैं कि उन्होंने दुष्टता करने वाले अनेकों महाबली असुरों का संहार कर डाला और असुरों द्वारा नगरी के ध्वस्त भाग का पुनर्निर्माण भी बात-की-बात में करा दिया, तब यह क्या नहीं कर सकते?’

काशिराज की बात से असहमत ज्योतिषी क्रोधावेश में भर गया।

उसने सँभल कर कहा- ‘महाराज! मैंने जो कुछ कहा है, वह सब तुम्हारे ही हित में है, वस्तुतः जो भविष्य निश्चित है, वह टले भी कैसे? इसलिए आप मेरे गणित में सन्देह करते हो।

अच्छा, आप उस मुनिकुमार को तो यहाँ बुलाइये जरा उसकी भी रेखाएँ देख लूँ।’

महाराज ने महोत्कट को बुलाने के लिए एक अमात्य को भेजा और उन्हें सादर लिवा भी लाया।

उन्होंने एक उच्च आसन पर ज्योतिषी को बैठा देखकर उसे प्रणाम किया और फिर महाराज के निकट जाकर बैठ गये।

ज्योतिषी ने उनका शारीरिक बल का अनुमान कर तथा विलक्षण आकृति देखकर सहज ही अनुमान लगा लिया कि सामना कड़ा है और इस कारण वह कुछ भयभीत भी हुआ।

तभी काशीनरेश ने कहा-‘दैवज्ञ श्रेष्ठ! आज तक जो भी असुर इनके सामने आया वह चाहे कितना भी बलवान और मायावी रहा, उसे अपने प्राणों की आहुति देनी ही पड़ी।

इस प्रकार इनमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार के असीमित बल विद्यमान हैं।’

राजा की बात सुनकर ज्योतिषी के भय में और वृद्धि हुई, फिर भी वह अपने आन्तरिक भाव छिपाता हुआ बोला- ‘मुनिकुमार! जरा अपना हाथ तो दिखला मुझे।’

महोत्कट हँसे, बोले- ‘क्या करेंगे हाथ देखकर? मुझे अपना शुभाशुभ जानने की इच्छा ही नहीं है, तो हाथ क्या दिखाऊँ?’

ज्योतिषी बोला- ‘राजन्! देख लो, मुझे यह हाथ इसीलिए नहीं दिखा रहा है कि सब भेद खुल जायेगा।

अच्छा! न दिखा हाथ, मैं चेहरा देखकर ही सब फल स्पष्ट बता सकता हूँ।’

कश्यपपुत्र पुनः हँसकर बोले- ‘अच्छा, बताइए।

इसी से तो आपके ज्योतिष-ज्ञान की परीक्षा होगी।’

ज्योतिषी भयाभूत और क्रोधित था ही, अब अपना आपा भी छोड़ चुका था।

वह प्रलाप करने लगा- ‘बालक! अब तेरा चार दिन का ही जीवन शेष है, फिर तो कुएँ में गिरेगा ही।

यदि कुएँ से बचा तो समुद्र में डूबेगा और उससे भी बच गया तो किसी पर्वत-शिखर के टूटने से उसके नीचे दब मरेगा।’

महोत्कट अट्टहास कर उठे, इस प्रकार वह और भी बौखलाया- ‘तुझे कालपुरुष भक्षण कर लेगा।

यह मेरा निश्चित भविष्य है।

यदि मृत्यु से बचना चाहता है तो चल मेरे साथ चार दिन तक मेरे साथ वन में रहकर फिर यहाँ लौट आना।

मैं स्वयं ही तुझे यहाँ पहुँचा दूँगा।’

विनायक ने व्यंग्य किया- ‘पर तुम्हारे साथ वन में रहने से मेरी निश्चित मृत्यु कैसे टलेगी? क्या कालपुरुष तुम्हारा आज्ञाकारी सेवक है, जो मुझे मारेगा नहीं?’

वह बोला- ‘इन बातों को तू क्या जाने बच्चे! अरे, हम में साधना का इतना बल है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी सेवा में खड़े रहते हैं, तब काल-पुरुषों की तो बात ही क्या है?’

ज्योतिषी के मुख का रंग बार-बार बदल रहा था।

उसके बदलते हुए भावों से महोत्कट पहिले ही उसकी वास्तविकता जान चुके थे।

उन्होंने तुरन्त ही उसके कठोर वक्षःस्थल पर मुद्रिकास्त्र का प्रयोग किया।

बस, फिर क्या था? अविलम्ब उसका हृदय फट गया और खून का स्त्रोत-सा फूट निकला।

इस प्रकार ब्राह्मण ज्योतिषी के रूप में आये हुए उस क्रूरतम असुर का प्राणान्त हो गया।

तब उसका प्रकट रूप देखकर सारी प्रजा आश्चर्यचकित हो गई।

राजा ने विनायक का पूजन कर चरणों में प्रणाम किया और विप्रों को बहुत-सा दान दिया।


असुर कूपक और कन्दर की मृत्यु

नरान्तक को विप्र रूपधारी असुर के मरने का भी संवाद मिल गया, उससे वह और भी तिलमिला गया और उसने कूपक और कन्दर नामक दो महाबली असुर-सेनापतियों को बुलाया।

उन्होंने आकर असुरराज को प्रणाम किया और आदेश की प्रतीक्षा में एक ओर खड़े हो गए।

उन्हें देखकर नरान्तक बोला- ‘आ गये तुम दोनों? मुझे तुम्हारी शक्ति-सामर्थ्य पर भरोसा है।

अभी अपनी-अपनी सेनाओं के सहित काशी पहुँचो और काशिराज तथा उसके यहाँ पूजित ऋषिकुमार को पकड़ लाओ अथवा मार डालो।’

दोनों बोले- ‘अहा! यह तो चुटकियों का कार्य है सम्राट्! हम अभी जाकर दोनों को ले आते हैं।

यदि आज्ञा हो तो काशीनगर का भी विध्वंस कर डालें!’ नरान्तक ने धीरे से कहा- ‘सब उतने से ही कार्य चल जायेगा।

परन्तु ध्यान रखना कश्यप-पुत्र बहुत धूर्त है, कहीं वह तुमको भी मूर्ख न बना दे।’

उन्होंने कहा- ‘नहीं स्वामिन्! वह कैसे भी धूर्त क्यों न हो, हमसे बचकर कहाँ जाएगा?’

इस प्रकार आश्वासन देकर और आसुरी सेना की दो बड़ी टुकड़ियाँ लेकर वे दोनों प्रबल प्रतापी असुर काशी नगरी की ओर चल पड़े।

महोत्कट तो यह समझ ही रहे थे कि नरान्तक का अत्यन्त कुटिल असुर मारा गया है, इसलिए वह चैन से नहीं बैठेगा।

कूपक और कंदर ने सेनाएँ तो नगरी के बाहर लगा दीं और स्वयं भीतर जा पहुँचे।

कूपक तो राजभवन के आँगन में कूप और कुन्दर ने बालक का वेश धारण किया।

उसने खेल के बहाने वहाँ के बहुत से बालक इकट्ठे कर लिए।

विनायक भी वहाँ आ गये, जिन्हें देखकर असुरों ने समझ लिया कि बस अब काम बन गया।

इसे मारकर काशिराज को मार डालेंगे।

परन्तु उनका स्वप्न भंग हो गया।

महोत्कट ने खेल-खेल में ही दोनों का वध कर दिया और फिर वह अफवाह उड़ा दी कि कूपक ने ही कन्दर को मार डाला।

किसी बात पर कुछ विवाद हुआ और तभी परस्पर युद्ध करने लगे।

यह चर्चा सुनते ही कन्दर की सेना ने कूपक की सेना पर आक्रमण कर दिया।

इस प्रकार दोनों आसुरी सेनाएँ महोत्कट की कूटनीति से मारी गईं।


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