गणेश पुराण – चतुर्थ खण्ड – अध्याय – 9


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तुलसी का गणपति को शाप

श्रीनारायण बोले- ‘हे नारद! इस प्रकार एकदन्त गणेश्वर का उपाख्यान मैंने तुम्हारे प्रति कह दिया है।

अब और सुनना चाहते हो, वह बताओ।’

नारदजी ने निवेदन किया ‘प्रभो! यह तो आपने अत्यन्त अनुपम कथा कही है।

श्रीगणेश्वर के ऐसे ऐसे गोपनीय चरित्रों के कथन में आप ही समर्थ हैं।

हे नाथ! अभी अनेक चरित्र-श्रवण से मेरा मन भरा नहीं है।

अतः आप और भी कोई चरित्र उनसे सम्बन्धित हो तो कहने की कृपा करें।’

भगवान् नारायण बोले- ‘धन्य हो नारद! जो तुम्हारा मन गणपति की पवित्र कथाओं में लगा है।

तुम्हारा आग्रह है तो मैं भी उनकी पावन कथा अवश्य ही कहूँगा।’

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! इस प्रकार नारदजी का आग्रह देखकर श्रीनारायण ने कहना आरम्भ किया- ‘नारद! मैं तुम्हें गणेशजी का एक अन्य उपाख्यान सुनाता हूँ, जो कि ब्रह्मकल्प में घटित हुआ था।

एक बार गणेश्वर श्रीगंगाजी के पावन तट पर तपस्या कर रहे थे।

उनके अर्द्ध उन्मीलित नेत्र थे तथा मन भगवान् श्रीहरि में लगा था।

वे सदैव उन्हीं के चरण-कमलों का ध्यान किया करते थे।

‘उस समय वे एक रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थे।

समस्त अंगों पर चन्दन लगा हुआ था।

गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे।

कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।

भुजाओं में स्वर्णाभरण, मस्तक पर देदीप्यमान मुकुट और कानों में कुण्डल सुशोभित थे।

उनका मुखमण्डल करोड़ों सूर्यों की आभा को भी लजाता हुआ दमक रहा था।

उनकी सुन्दर सूँड़ एवं विद्युतोपम श्वेत दन्त भी अद्भुत शोभा के कारण थे।

इस प्रकार अद्भुत एवं दिव्य सौंदर्यावतार गणेशजी कुछ-कुछ योग झपकी लेते हुए और कुछ जागते हुए-से अत्यन्त शोभायमान लग रहे थे।

‘इसी अवसर पर धर्मात्मज की नवयौवना कन्या तुलसी देवी श्री भगवान् श्रीहरि का स्मरण करती हुई विभिन्न तीर्थों में भ्रमण करने को निकली थी।

वह विभिन्न स्थानों पर होती हुई उसी गंगातट पर जा पहुँची जहाँ पार्वतीनन्दन एकदन्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में ध्यान में रत थे।

तुलसी ने उमासुवन को देखा तो कुछ विमोहित-सी हो गई।

उसने सोचा-कितना अद्भुत और अलौकिक रूप है, गिरिजानन्दन का? इनसे

वार्तालाप करके विचार जानने चाहिए।

सम्भव है इनके द्वारा की जाने वाली उपासना कुछ इस प्रकार की हो, जो मेरा प्रयोजन है।’

ऐसा विचार कर तुलसी ने उनके समीप जाकर कहा-‘हे गजानन! हे शूर्पकर्ण! हे एकदन्त! हे घटोदर! मुझे यह तो बताओ कि संसारभर के समस्त आश्चर्य एकमात्र तुम्हारे ही विग्रह में किस प्रकार एकत्र हो गये हैं? क्या इसके लिए तुमने कोई तपस्या की है? यदि की है तो वह किस देवता की थी?’

गणेश्वर तुलसी को देखकर कुछ अचकचाये।

सोचा-यह कौन है? मेरे पास आने का क्या प्रयोजन है इसका?

जब कोई समाधान नं हुआ तो बोले- ‘वत्से! मैंने तुम्हें अब से पहिले कभी नहीं देखा।

इसलिए तुम कौन हो? यहाँ किस प्रयोजन से आई हो? मेरी तपश्चर्या में विघ्न डालने का क्या कारण है?’

तुलसी बोली- ‘गणेश्वर! मैं धर्मपुत्र की कन्या तुलसी हूँ।

तुम्हें यहाँ तपस्या करते देखकर उपस्थित हो गई।’

यह सुनकर पार्वतीनन्दन ने कहा- ‘माता! तपस्या में विघ्न कभी भी उपस्थित नहीं करना चाहिए।

इसमें सर्वथा अकल्याण ही होता है।

मंगलमय भगवान् तुम्हारा मंगल करें।

अब तुम यहाँ से चली जाओ।’

यह सुनकर तुलसी ने अपनी व्यथा कही- ‘पार्वती-तनय! मेरी बात सुनो।

मैं मनोऽनुकूल वर की खोज में ही इस समय तीर्थाटन कर रही हूँ।

अनेक वर देखे, किन्तु आप पसन्द आये हो मुझे।

अतएव आप मुझे भार्या रूप में स्वीकार कर मेरे साथ विवाह कर लीजिए।’

गणेश्वर बोले- ‘माता! विवाह कर लेना जितना सरल है, उतना ही कठिन उसके दायित्व का निर्वाह करना है।

इसलिए विवाह तो दुःख का ही कारण होता है।

उसमें सुख की प्राप्ति कभी नहीं होती।

विवाह में काम-वासना की प्रधानता रहती है, जो कि तत्त्वज्ञान का उच्छेद करने वाली तथा समस्त संशयों को उत्पन्न करने वाली है।

अतएव हे माता! तुम मेरी ओर से चित्त हटा लो।

यदि ठीक प्रकार से खोज करोगी तो मुझसे अच्छे अनेक वर तुम्हें मिल जायेंगे।’

तुलसी बोली- ‘एकदन्त! मैं तो तुमको ही अपने मनोनुऽकूल देखती हूँ इसलिए मेरी याचना को ठुकराकर निराश करने का प्रयत्न न करो।

मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लो प्रभो!’ गणेश बोले- ‘परन्तु, मुझे तो विवाह ही नहीं करना है तब तुम्हारा प्रस्ताव कैसे स्वीकार कर लूँ? माता! तुम कोई और वर देखो और मुझे क्षमा करते हुए मेरी ओर से अपना चित्त पूर्ण रूप से हटा लो, इसी में तुम्हारा कल्याण निहित है।’

तुलसी को गणेशजी की बात बहुत अप्रिय लगी और उसने कुछ रोषपूर्वक कहा- ‘उमानन्दन! मैं कहती हूँ कि तुम्हारा विवाह तो अवश्य होगा।

मेरा यह वचन मिथ्या नहीं हो सकता।’


गणपति का तुलसी को शाप वर्णन

तुलसी-प्रदत्त शाप को सुनकर गणपति भी शाप दिये बिना न रह सके।

उन्होंने तुरन्त कहा- ‘देवि! तुमने मुझे व्यर्थ ही शाप दे डाला है, इसलिए मैं भी कहता हूँ कि तुम्हें भी जो पति प्राप्त होगा वह असुर होगा तथा उसके पश्चात् महापुरुषों के शापवश तुम्हें वृक्ष होना पड़ेगा।’

शाप सुनकर तुलसी भयभीत हो गई।

उसने गणेश्वर की स्तुति की- ‘हे गणराज! हे एकदन्त! हे हेरम्ब! मुझपर कृपा कीजिए।

मेरे अपराध को क्षमा करके दया-दृष्टि से देखिये।

हे प्रभो! आप तो सभी विघ्नों का नाश करने वाले हैं।

मुझे भी जिन विघ्नों की प्राप्ति होने का शाप आपने दिया है, उनका निवारण भी आप कर सकते हैं।

हे दुःखनाशक! दुःखों को दूर कर दीजिए।’

तुलसी की विनय सुनकर गणेश्वर प्रसन्न हो गये।

उन्होंने उसे आश्वासन दिया- ‘देवि! तुम समस्त सौरभवन्त पुष्पों की सारभूता बनोगी।

कलांश से भगवान् श्रीनारायण की प्रिया बनने का सौभाग्य भी तुम्हें प्राप्त होगा।

यद्यपि समस्त देवगण तुमसे प्रसन्न रहेंगे, तथापि भगवान् श्रीहरि को तुम्हारे प्रति विशेष प्रीति रहेगी।

नरलोक में मनुष्यों को तुम्हारे माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने पर उनके स्वधाम की अथवा मोक्ष की प्राप्ति होगी।

किन्तु मेरे द्वारा तुम सदैव त्याज्य ही रहोगी।’

गणपति से उक्त वर प्राप्त कर तुलसी अपने गन्तव्य स्थान को गई और इधर गणेश्वर भी वहाँ से बदरीनाथ के समीप तपश्चर्या के लिए चले गये।

यह सुनकर शौनक जी ने प्रश्न किया- ‘हे सूतजी! तुलसी को फिर किस वर की प्राप्ति हुई तथा वृक्षभाव में वह कब स्थित हुई, यह भी बताने की कृपा करें।’

सूतजी बोले- ‘हे शौनक! कालान्तर में वही तुलसी वृन्दा हुई और दानवराज शंखचूड़ की भार्या बनी।

यह शंखचूड़ पूर्व जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का पार्षद सुदामा था जो रासेश्वरी राधा के शापवश असुर-योनि को प्राप्त हुआ था।

वह शंखचूड़-भार्या भगवान् के कलांश से वृक्षभाव को प्राप्त होती हुई श्रीहरि की परमप्रिया हुई।’


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