भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 60


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श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगपर आरामसे बैठे हुए थे।

भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेवकी सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं।।१।।

परीक्षित्! जो सर्वशक्तिमान् भगवान् खेल-खेलमें ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं – वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं।।२।।

रुक्मिणीजीका महल बड़ा ही सुन्दर था।

उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिनमें मोतियोंकी लड़ियोंकी झालरें लटक रही थीं।

मणियोंके दीपक जगमगा रहे थे।।३।।

बेला-चमेलीके फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे।

फूलोंपर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे।

सुन्दर-सुन्दर झरोखोंकी जालियोंमेंसे चन्द्रमाकी शुभ्र किरणें महलके भीतर छिटक रही थीं।।४।।

उद्यानमें पारिजातके उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी।

झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था।।५।।

ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान् श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं।।६।।

रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान् की सेवा करने लगीं।।७।।

उनके करकमलोंमें जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे।

चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे।

अंचलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था।

नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लड़ियाँ लटक रही थीं।

इस प्रकार वे भगवान् के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्न थीं।।८।।

रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे।

उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी।

ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं।

उन्होंने जब देखा कि भगवान् ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया।

भगवान् श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं।

तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा।।९।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे।।१०।।

तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था।

शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया।

ऐसा तुमने क्यों किया?।।११।।

सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं।

बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासनके अधिकारसे भी हम वंचित ही हैं।।१२।।

सुन्दरी! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है।

हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं।

जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है।।१३।।

सुन्दरी! हम तो सदाके अकिंचन हैं।

न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा।

ऐसे ही अकिंचन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं।

यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते।।१४।।

जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है – उन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये।

जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये।।१५।।

विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया।।१६।।

अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है।

तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो।

जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें।।१७।।

सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी-सभी मुझसे द्वेष करते थे।।१८।।

कल्याणी! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे।

उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था।।१९।।

निश्चय ही हम उदासीन हैं।

हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं।

निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं।

हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं।।२०।।

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः।

आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके क्षणभरके लिये भी अलग न होनेके कारण रुक्मिणीजीको यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ।

इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान् चुप हो गये।।२१।।

परीक्षित्! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी – जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं।।२२।।

वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं।

अंजनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्षःस्थलको धोने लगे।

मुँह नीचेको लटक गया।

अत्यन्त दुःखके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं।।२३।।

अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाईका कंगनतक खिसक गया।

हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेगसे उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पड़ीं।।२४।।

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है।

स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान् श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया।।२५।।

चार भुजाओंवाले वे भगवान् उसी समय पलँगसे उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशोंको बाँधकर अपने शीतल करकमलोंसे उनका मुँह पोंछ दिया।।२६।।

भगवान् ने उनके नेत्रोंके आँसू और शोकके आँसुओंसे भींगे हुए स्तनोंको पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया।।२७।।

भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं।

जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया।।२८।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – विदर्भनन्दिनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना।

मुझसे रूठना नहीं।

मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो।

मेरी प्रिय सहचरी! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी।।२९।।

मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फड़कने लगते हैं।

तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है।।३०।।

मेरी परमप्रिये! सुन्दरी! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अर्द्धांगिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घड़ियाँ सुखसे बिता ली जाती हैं।।३१।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन्! जब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था।

अब उनके हृदयसे यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे।।३२।।

परीक्षित्! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवनसे पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णका मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं – ।।३३।।

रुक्मिणीजीने कहा – कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान् के अनुरूप मैं नहीं हूँ।

आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती।

कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं।।३४।।

भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ।

स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं।

परन्तु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं।

मानो आप उन्हींके भयसे अन्तःकरणरूप समुद्रमें चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओंसे वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ।

इनसे तो आपका वैर है ही।

और प्रभो! आप राजसिंहासनसे रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणोंकी सेवा करनेवालोंने भी राजाके पदको घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है।

फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है।।३५।।

आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है।

क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मोंका मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते।

और हे अनन्त! आपके मार्गपर चलनेवाले आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्रायः अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्योंके आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है?।।३६।।

आपने अपनेको अकिंचन बतलाया है; परन्तु आपकी अकिंचनता दरिद्रता नहीं है।

उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं।

आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है।

परन्तु जिन ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं।

आप उनके प्यारे हैं और वे आपके प्यारे हैं।

(आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यताके अभिमानसे अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर सवार हैं।।३७।।

जगत् में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – उन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं।

आप समस्त वृत्तियों – प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं।

विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं।

भगवन्! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये।

जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या दुःखके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं।।३८।।

यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है।

परन्तु किन भिक्षुकोंने? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है।

मैंने अदूरदर्शितासे नहीं, इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत् के आत्मा हैं और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं।

मैंने जान-बूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है।

फिर दूसरोंकी – शिशुपाल, दन्तवक्त्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है?।।३९।।

सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं।

क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुषके टंकारसे मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समर्पित मुझ दासीको उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे।।४०।।

कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाना पड़ता है।

प्राचीन कालके अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं।।४१।।

आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो।

भगवन्! आप समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं।

बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते रहते हैं।

उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं।

लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं।

फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थको भलीभाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयोंसे युक्त हैं! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती।।४२।।

प्रभो! आप सारे जगत् के एकमात्र स्वामी हैं।

आप ही इस लोक और परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं।

मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है।

मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है।

मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ।।४३।।

अच्युत! शत्रुसूदन! गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया है – उसी अभागिनी स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान् शंकर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश नहीं किया है।।४४।।

यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है।

ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशोंसे ढका हुआ है; परन्तु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं।

इसे वही मूढ़ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है।।४५।।

कमलनयन! आप आत्माराम हैं।

मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती।

अतः आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है।

जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है।।४६।।

मधुसूदन! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो।

मैं आपकी इस बातको भी झूठ नहीं मानती।

क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी काशी-नरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है।।४७।।

कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है।

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे।

उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है।।४८।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – साध्वी! राजकुमारी! यही बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी-हँसीमें तुम्हारी वंचना की थी, तुम्हें छकाया था।

तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरशः सत्य है।।४९।।

सुन्दरी! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो।

मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है।

तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं।

और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं।।५०।।

पुण्यमयी प्रिये! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया।

मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परन्तु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई।।५१।।

प्रिये! मैं मोक्षका स्वामी हूँ।

लोगोंको संसार-सागरसे पार करता हूँ।

जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी मायासे मोहित हैं।।५२।।

मानिनी प्रिये! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ।

मुझ परमात्माको प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुखके साधन सम्पत्तिकी ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरकमें और नरकके ही समान सूकर-कूकर आदि योनियोंमें भी प्राप्त हो सकते हैं।

परन्तु उन लोगोंका मन तो विषयोंमें ही लगा रहता है, इसलिये उन्हें नरकमें जाना भी अच्छा जान पड़ता है।।५३।।

गृहेश्वरी प्राणप्रिये! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है।

दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते।

जिन स्त्रियोंका चित्त दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिमें ही लगी रहनेके कारण अनेकों प्रकारके छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है।।५४।।

मानिनि! मुझे अपने घरभरमें तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती।

क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाहमें आये हुए राजाओंकी उपेक्षा करके ब्राह्मणके द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था।।५५।।

तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें चौसर खेलते समय बलरामजीने तो उसे मार ही डाला।

किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशंकासे तुमने चुपचाप वह सारा दुःख सह लिया।

मुझसे एक बात भी नहीं कही।

तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ।।५६।।

तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूतके द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परन्तु जब तुमने मेरे पहुँचनेमें कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा।

उस समय तुमने अपना यह सर्वांगसुन्दर शरीर किसी दूसरेके योग्य न समझकर इसे छोड़नेका संकल्प कर लिया था।

तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे।

हम इसका बदला नहीं चुका सकते।

तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं।।५७।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं।

वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेमको बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीके साथ विहार करते हैं।।५८।।

भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत् को शिक्षा देनेवाले और सर्वव्यापक हैं।

वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियोंके महलोंमें भी गृहस्थोंके समान रहते और गृहस्थोचित धर्मका पालन करते थे।।५९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः।।६०।।


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