भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 42


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कुब्जापर कृपा, धनुषभंग और कंसकी घबड़ाहट

श्रीशुक उवाच

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डलीके साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा।

उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीरसे कुबड़ी थी।

इसीसे उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’।

वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी।

भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा – ।।१।।

‘सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो।

यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो।

इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’।।२।।

उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा – ‘परम सुन्दर! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ।

महाराज मुझे बहुत मानते हैं।

मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है।

मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगानेका काम करती हूँ।

मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं।

परन्तु आप दोनोंसे बढ़कर उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है’।।३।।

भगवान् के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया।

उसने भगवान् पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया।

उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया।।४।।

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अंगराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए।।५।।

भगवान् श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया।।६।।

भगवान् ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया।।७।।

उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये।

प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान् के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी।।८।।

उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न हो गयी।

उसके मनमें भगवान् के मिलनकी कामना जाग उठी।

उसने उनके दुपट्टेका छोर पकड़कर मुसकराते हुए कहा – ।।९।।

‘वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें।

अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती।

क्योंकि आपने मेरे चित्तको मथ डाला है।

पुरुषोत्तम! मुझ दासीपर प्रसन्न होइये’।।१०।।

जब बलरामजीके सामने ही कुब्जाने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा – ।।११।।

‘सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है।

मैं अपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा।

हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है’।।१२।।

इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान् श्रीकृष्णने उसे विदा कर दिया।

जब वे व्यापारियोंके बाजारमें पहुँचे, तब उन व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह-तरहकी भेंट – उपहारोंसे पूजन किया।।१३।।

उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी आकांक्षा जग उठती थी।

यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती।

उनके वस्त्र, जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं।।१४।।

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुष-यज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद् भुत धनुष देखा।।१५।।

उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था।

उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे।

भगवान् श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया।।१६।।

उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है।।१७।।

जब धनुष टूटा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया।।१८।।

अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने सहायकोंके साथ बहुत ही बिगड़े।

वे भगवान् श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे – ‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे’।।१९।।

उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया।।२०।।

उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला।

इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे।।२१।।

जब नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंके इस अद् भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं।।२२।।

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे।

जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये।।२३।।

तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहनेवाले भगवान् का वरण किया।

उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना लिया।

मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णके अंग-अंगका सौन्दर्य देख रहे हैं।

उनका कितना सौभाग्य है! व्रजमें भगवान् की यात्राके समय गोपियोंने विरहातुर होकर मथुरावासियोंके सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं।

सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये।।२४।।

फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको वहीं आरामसे सो गये।।२५।।

जब कंसने सुना कि श्रीकृष्ण और बलरामने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायताके लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था – इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी।।२६।।

तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी।

उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए जो उसकी मृत्युके सूचक थे।।२७।।

जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछाईं तो पड़ती है, परन्तु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं।।२८।।

छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अँगुली डालकर सुननेपर भी प्राणोंका घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता।

वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते।।२९।।

कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढ़कर चलता है और विष खा रहा है।

उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल)-की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है।।३०।।

स्वप्न और जाग्रत्-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे।

उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी।।३१।।

परीक्षित्! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल-क्रीड़ा (दंगल)-का महोत्सव प्रारम्भ कराया।।३२।।

राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया।

तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे।

लोगोंके बैठनेके मंच फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये।।३३।।

उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासी – सब यथास्थान बैठ गये।

राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे।।३४।।

राजा कंस अपने मन्त्रियोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राजसिंहासनपर जा बैठा।

इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था।।३५।।

तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे।।३६।।

चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये।।३७।।

इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया।

उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मंचपर बैठ गये।।३८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरंगोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।।४२।।


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