भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 7


<< भागवत पुराण – Index

<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 6

भागवत पुराण स्कंध लिंक - भागवत माहात्म्य | प्रथम (1) | द्वितीय (2) | तृतीय (3) | चतुर्थ (4) | पंचम (5) | षष्ठ (6) | सप्तम (7) | अष्टम (8) | नवम (9) | दशम (10) | एकादश (11) | द्वादश (12)


शकट-भंजन और तृणावर्त-उद्धार

राजा परीक्षित् ने पूछा – प्रभो! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुननेमें मधुर लीलाएँ करते हैं।

वे सभी मेरे हृदयको बहुत प्रिय लगती हैं।।१।।

उनके श्रवणमात्रसे भगवत्-सम्बन्धी कथासे अरुचि और विविध विषयोंकी तृष्णा भाग जाती है।

मनुष्यका अन्तःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है।

भगवान् के चरणोंमें भक्ति और उनके भक्तजनोंसे प्रेम भी प्राप्त हो जाता है।

यदि आप मुझे उनके श्रवणका अधिकारी समझते हों, तो भगवान् की उन्हीं मनोहर लीलाओंका वर्णन कीजिये।।२।।

भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्य-लोकमें प्रकट होकर मनुष्य-जातिके स्वभावका अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद् भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओंका भी वर्णन कीजिये।।३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! एक बार* भगवान् श्रीकृष्णके करवट बदलनेका अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था।

उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था।

घरमें बहुत-सी स्त्रियोंकी भीड़ लगी हुई थी।

गाना-बजाना हो रहा था।

उन्हीं स्त्रियोंके बीचमें खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका अभिषेक किया।

उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे।।४।।

नन्दरानी यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया।

उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं।

जब यशोदाने उन ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकरकि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे शय्यापर सुला दिया।।५।।

थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पानके लिये रोने लगे।

उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय हो रही थीं।

इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा।

तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे।।६।।

शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़ेके नीचे सोये हुए थे।

उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे।

परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया*।

उस छकड़ेपर दूध-दही आदि अनेक रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे।

वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया।।७।।

करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये।

वे आपसमें कहने लगे – ‘अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?’।।८।।

वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके।

वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा कि ‘इस कृष्णने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं’।।९।।

परन्तु गोपोंने उसे ‘बालकोंकी बात’ मानकर उसपर विश्वास नहीं किया।

ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त बलको नहीं जानते थे।।१०।।

यशोदाजीने समझा यह किसी ग्रह आदिका उत्पात है।

उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लालको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंसे वेदमन्त्रोंके द्वारा शान्तिपाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं।।११।।

बलवान् गोपोंने छकड़ेको फिर सीधा कर दिया।

उसपर पहलेकी तरह सारी सामग्री रख दी गयी।

ब्राह्मणोंने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जलके द्वारा भगवान् और उस छकड़ेकी पूजा की।।१२।।

जो किसीके गुणोंमें दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमानसे रहित हैं – उन सत्यशील ब्राह्मणोंका आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता।।१३।।

यह सोचकर नन्दबाबाने बालकको गोदमें उठा लिया और ब्राह्मणोंसे साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा संस्कृत एवं पवित्र ओषधियोंसे युक्त जलसे अभिषेक कराया।।१४।।

उन्होंने बड़ी एकाग्रतासे स्वस्त्ययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणोंको अति उत्तम अन्नका भोजन कराया।।१५।।

इसके बाद नन्दबाबाने अपने पुत्रकी उन्नति और अभिवृद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंको सर्वगुणसम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं।

वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोनेके हारोंसे सजी हुई थीं।

ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया।।१६।।

यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता।।१७।।

एक दिनकी बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्लाको गोदमें लेकर दुलार रही थीं।

सहमा श्रीकृष्ण चट्टानके समान भारी बन गये।

वे उनका भार न सह सकीं।।१८।।

उन्होंने भारसे पीड़ित होकर श्रीकृष्णको पृथ्वीपर बैठा दिया।

इस नयी घटनासे वे अत्यन्त चकित हो रही थीं।

इसके बाद उन्होंने भगवान् पुरुषोत्तमका स्मरण किया और घरके काममें लग गयीं।।१९।।

तृणावर्त नामका एक दैत्य था।

वह कंसका निजी सेवक था।

कंसकी प्रेरणासे ही बवंडरके रूपमें वह गोकुलमें आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्णको उड़ाकर आकाशमें ले गया।।२०।।

उसने व्रजरजसे सारे गोकुलको ढक दिया और लोगोंकी देखनेकी शक्ति हर ली।

उसके अत्यन्त भयंकर शब्दसे दसों दिशाएँ काँप उठीं।।२१।।

सारा व्रज दो घड़ीतक रज और तमसे ढका रहा।

यशोदाजीने अपने पुत्रको जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे।।२२।।

उस समय तृणावर्तने बवंडररूपसे इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे।

उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था।।२३।।

उस जोरकी आँधी और धूलकी वर्षामें अपने पुत्रका पता न पाकर यशोदाको बड़ा शोक हुआ।

वे अपने पुत्रकी याद करके बहुत ही दीन हो गयीं और बछड़ेके मर जानेपर गायकी जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी।

वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं।।२४।।

बवंडरके शान्त होनेपर जब धूलकी वर्षाका वेग कम हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं।

नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको न देखकर उनके हृदयमें भी बड़ा संताप हुआ, आँखोंसे आँसूकी धारा बहने लगी।

वे फूट-फूटकर रोने लगीं।।२५।।

इधर तृणावर्त बवंडररूपसे जब भगवान् श्रीकृष्णको आकाशमें उठा ले गया, तब उनके भारी बोझको न सँभाल सकनेके कारण उसका वेग शान्त हो गया।

वह अधिक चल न सका।।२६।।

तृणावर्त अपनेसे भी भारी होनेके कारण श्रीकृष्णको नीलगिरिकी चट्टान समझने लगा।

उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद् भुत शिशुको अपनेसे अलग नहीं कर सका।।२७।।

भगवान् ने इतने जोरसे उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया।

उसकी आँखें बाहर निकल आयीं।

बोलती बंद हो गयी।

प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्णके साथ वह व्रजमें गिर पड़ा*।।२८।।

वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाशसे एक चट्टानपर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया – ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् शंकरके बाणोंसे आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था।।२९।।

भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थलपर लटक रहे थे।

यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं।

उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्णको गोदमें ले लिया और लाकर उन्हें माताको दे दिया।

बालक मृत्युके मुखसे सकुशल लौट आया।

यद्यपि उसे राक्षस आकाशमें उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया।

इस प्रकार बालक श्रीकृष्णको फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपोंको अत्यन्त आनन्द हुआ।।३०।।

वे कहने लगे – ‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है।

देखो तो सही, यह कितनी अद् भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षसके द्वारा मृत्युके मुखमें डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्टको उसके पाप ही खा गये! सच है, साधुपुरुष अपनी समतासे ही सम्पूर्ण भयोंसे बच जाता है।।३१।।

हमने ऐसा कौन-सा तप, भगवान् की पूजा, प्याऊ-पौसला, कूआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवोंकी भलाई की थी, जिसके फलसे हमारा यह बालक मरकर भी अपने स्वजनोंको सुखी करनेके लिये फिर लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्यकी बात है’।।३२।।

जब नन्दबाबाने देखा कि महावनमें बहुत-सी अद् भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेवजीकी बातका बार-बार समर्थन किया।।३३।।

एक दिनकी बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशुको अपनी गोदमें लेकर बड़े प्रेमसे स्तनपान करा रही थीं।

वे वात्सल्य-स्नेहसे इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनोंसे अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था।।३४।।

जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुसकानसे युक्त मुखको चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्णको जँभाई आ गयी और माताने उनके मुखमें यह देखा*।।३५।।

उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं।।३६।।

परीक्षित्! अपने पुत्रके मुँहमें इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा।

उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं*।

वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं।।३७।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः।।७।।

* यहाँ कदाचित् (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीनेके जन्मनक्षत्रयुक्त कालसे।

उस समय श्रीकृष्णकी झाँकीका ऐसा वर्णन मिलता है – स्निग्धाः पश्यति सेष्मयीति भुजयोर्युग्मं मुहुश्चालयन्नत्यल्पं मधुरं च कूजति परिष्वंगाय चाकांक्षति।

लाभालाभवशादमुष्य लसति क्रन्दत्यपि क्वाप्यसौ पीतस्तन्यतया स्वपित्यपि पुनर्जाग्रन्मुदं यच्छति।।

‘स्नेहसे तर गोपियोंको आँख उठाकर देखते हैं और मुसकराते हैं।

दोनों भुजाएँ बार-बार हिलाते हैं।

बड़े मधुर स्वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं।

गोदमें आनेके लिये ललकते हैं।

किसी वस्तुको पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलनेसे क्रन्दन करते हैं।

कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं।’ * हिरण्याक्षका पुत्र था उत्कच।

वह बहुत बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था।

एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके वृक्षोंको कुचल डाला।

लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया – ‘अरे दुष्ट! जा, तू देहरहित हो जा।’ उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा।

वह धड़ामसे लोमश ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की – ‘कृपासिन्धो! मुझपर कृपा कीजिये।

मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था।

मेरा शरीर लौटा दीजिये।’ लोमशजी प्रसन्न हो गये।

महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है।

उन्होंने कहा – ‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे तेरी मुक्ति हो जायगी।’ वही असुर छकड़ेमें आकर बैठ गया था और भगवान् श्रीकृष्णके चरणस्पर्शसे मुक्त हो गया।

* पाण्डुदेशमें सहस्राक्ष नामके एक राजा थे।

वे नर्मदा-तटपर अपनी रानियोंके साथ विहार कर रहे थे।

उधरसे दुर्वासा ऋषि निकले, परन्तु उन्होंने प्रणाम नहीं किया।

ऋषिने शाप दिया – ‘तू राक्षस हो जा।’ जब वह उनके चरणोंपर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजीने कह दिया – ‘भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहका स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा।’ वही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्णका संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया।

१. गृह्य।

२. सुतं।

* स्नेहमयी जननी और स्नेहके सदा भूखे भगवान्! उन्हें दूध पीनेसे तृप्ति ही नहीं होती थी।

माँके मनमें शंका हुई – कहीं अधिक पीनेसे अपच न हो जाय।

प्रेम सर्वदा अनिष्टकी आशंका उत्पन्न करता है।

श्रीकृष्णने अपने मुखमें विश्वरूप दिखाकर कहा – ‘अरी मैया! तेरा दूध मैं अकेले ही नहीं पीता हूँ।

मेरे मुखमें बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है।

तू घबरावे मत’ – स्तन्यं कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति वर्तिष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य।

विश्वं विभागि पयसोऽस्य न केवलोऽहमस्माददर्शि हरिणा किमु विश्वमास्ये।।

* वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लालाके मुखमें विश्व देखकर डर गयीं, परन्तु वात्सल्य-प्रेमरस-भावित हृदय होनेसे उन्हें विश्वास नहीं हुआ।

उन्होंने यह विचार किया कि यह विश्वका बखेड़ा लालाके मुँहमें कहाँसे आया? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखोंकी ही गड़बड़ी है।

मानो इसीसे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये।


Next.. (आगे पढें…..) >> भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 8

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 8


Krishna Bhajan, Aarti, Chalisa

Krishna Bhajan