भागवत पुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय – 24


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भगवान् के मत्स्यावतारकी कथा

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवान् के कर्म बड़े अद् भुत हैं।

उन्होंने एक बार अपनी योगमायासे मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ।।१।।

भगवन्! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रतासे युक्त भी है।

सर्वशक्तिमान् होनेपर भी भगवान् ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका रूप क्यों धारण किया?।।२।।

भगवन्! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान् का चरित्र समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है।

आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये।।३।।

सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित् ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान् का वह चरित्र जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया।।४।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं।।५।।

वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं।

परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते।

क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित – निर्गुण हैं।।६।।

परीक्षित्! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था।

उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे।।७।।

प्रलयकाल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे।

उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया।।८।।

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकी यह चेष्टा जान ली।

इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया।।९।।

परीक्षित्! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे।।१०।।

वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य)-के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान् ने वैवस्वत मनु बना दिया।।११।।

एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे।

उसी समय उनकी अंजलिके जलमें एक छोटी-सी मछली आ गयी।।१२।।

परीक्षित्! द्रविडदेशके राजा सत्यव्रतने अपनी अंजलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया।।१३।।

उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा – ‘राजन्! आप बड़े दीनदयालु हैं।

आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं।

मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ।

आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं?।।१४।।

राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान् मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं।

इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया।।१५।।

राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये।।१६।।

आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा।

उस समय मछलीने राजासे कहा।।१७।।

‘अब तो इस कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ’।।१८।।

राजा सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया।

परन्तु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी।।१९।।

फिर उसने राजा सत्यव्रतसे कहा – ‘राजन्! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है।

इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती।

मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’।।२०।।

परीक्षित्! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया।

परन्तु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्यका आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया।।२१।।

और कहा – ‘राजन्! मैं जलचर प्राणी हूँ।

इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है।

इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये,।।२२।।

मत्स्यभगवान् के इस प्रकार कहनेपर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये; परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते।

अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया।।२३।।

समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान् ने सत्यव्रतसे कहा – ‘वीर! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोड़िये’।।२४।।

मत्स्यभगवान् की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये।

उन्होंने कहा – ‘मत्स्यका रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं?।।२५।।

आपने एक ही दिनमें चार सौ कोसके विस्तारका सरोवर घेर लिया।

आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था।।२६।।

अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं।

जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है।।२७।।

पुरुषोत्तम! आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं।

आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं।।२८।।

यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है।।२९।।

कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्मपदार्थोंमें अपनेपनका अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं।

आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद् भुत है।।३०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं।

जब जगत्पति मत्स्यभगवान् ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा।।३१।।

श्रीभगवान् ने कहा – सत्यव्रत! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे।।३२।।

उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी।।३३।।

उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना।।३४।।

उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा।

प्रकाश नहीं होगा।

केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढ़कर चारों ओर विचरण करना।।३५।।

जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकिनागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना।।३६।।

सत्यव्रत! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा।।३७।।

उस समय जब तुम प्रश्न करोगे तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा।

मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे।।३८।।

भगवान् राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये।

अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान् ने आज्ञा दी थी।।३९।।

कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान् के चरणोंका चिन्तन करने लगे।।४०।।

इतनेमें ही भगवान् का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा।

राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है।

प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे।

देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी।।४१।।

तब राजाने भगवान् की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है।

तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये।।४२।।

सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा – ‘राजन्! तुम भगवान् का ध्यान करो।

वे ही हमें इस संकटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’।।४३।।

उनकी आज्ञासे राजाने भगवान् का ध्यान किया।

उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए।

मत्स्यभगवान् का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस।

उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था।।४४।।

भगवान् ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकिनागके द्वारा भगवान् के सींगमें बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रतने प्रसन्न होकर भगवान् की स्तुति की।।४५।।

राजा सत्यव्रतने कहा – प्रभो! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि अविद्यासे ढक गया है।

इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीड़ित हो रहे हैं।

जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं तब आपको प्राप्त कर लेते हैं।

इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं।।४६।।

यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है।

वह सुखकी इच्छासे दुःखप्रद कर्मोंका अनुष्ठान करता है।

जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें।।४७।।

जैसे अग्निमें तपानेसे सोने-चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्तःकरणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है।

आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं।

अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें।।४८।।

जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव हैं – वे सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते।

प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं।

मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ।।४९।।

जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं।

आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं।

हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं।।५०।।

अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है वह तो अज्ञान ही है।

उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है।

परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है।।५१।।

आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं।

गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्टकी सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है।

फिर भी कामनाओंके बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं।

उन्हें इस बातका पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् हैं।।५२।।

आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं।

मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ।

भगवन्! आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये।।५३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तमभगवान् ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश किया।।५४।।

भगवान् ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं।।५५।।

सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया।।५६।।

इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान् ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये।।५७।।

भगवान् की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए।।५८।।

अपनी योगमायासे मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है।।५९।।

जो मनुष्य भगवान् के इस अवतारका प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है।।६०।।

प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था।

भगवान् ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया।

उन समस्त जगत् के परम कारण लीलामत्स्यभगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।।६१।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र यां पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः।।२४।।

इत्यष्टमः स्कन्धः समाप्तः।।

।।

हरिः ॐ तत्सत्।।


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