भागवत पुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय – 21


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बलिका बाँधा जाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् का चरणकमल सत्यलोकमें पहुँच गया।

उसके नखचन्द्रकी छटासे सत्यलोककी आभा फीकी पड़ गयी।

स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाशमें डूब-से गये।

उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियोंके साथ भगवान् के चरणकमलकी अगवानी की।।१।।

वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदांग और पुराण-संहिताएँ – जो ब्रह्मलोकमें मूर्तिमान् होकर निवास करते हैं – तथा जिन लोगोंने योगरूप वायुसे ज्ञानाग्निको प्रज्वलित करके कर्ममलको भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान् के चरणकी वन्दना की।

इसी चरणकमलके स्मरणकी महिमासे ये सब कर्मके द्वारा प्राप्त न होनेयोग्य ब्रह्माजीके धाममें पहुँचे हैं।।२।।

भगवान् ब्रह्माकी कीर्ति बड़ी पवित्र है।

वे विष्णुभगवान् के नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं।

अगवानी करनेके बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूपभगवान् के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्यपाद्यसे पूजन किया, प्रक्षालन किया।

पूजा करके बड़े प्रेम और भक्तिसे उन्होंने भगवान् की स्तुति की।।३।।

परीक्षित्! ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूप भगवान् के पाँव पखारनेसे पवित्र होनेके कारण उन गंगाजीके रूपमें परिणत हो गया, जो आकाशमार्गसे पृथ्वीपर गिरकर तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं।

ये गंगाजी क्या हैं, भगवान् की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति।।४।।

जब भगवान् ने अपने स्वरूपको कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियोंको कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालोंने अपने अनुचरोंके साथ बड़े आदरभावसे अपने स्वामी भगवान् को अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं।।५।।

उन लोगोंने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धोंसे भरे अंगराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अंकुर, भगवान् की महिमा और प्रभावसे युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शंख और दुन्दुभिके शब्दोंसे भगवान् की आराधना की।।६-७।।

उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मनके समान वेगसे दौड़कर सब दिशाओंमें भेरी बजा-बजाकर भगवान् की मंगलमय विजयकी घोषणा कर आये।।८।।

दैत्योंने देखा कि वामनजीने तीन पग पृथ्वी माँगनेके बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली।

तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञमें दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं।

इसलिये बहुत चिढ़कर वे आपसमें कहने लगे।।९।।

‘अरे, यह ब्राह्मण नहीं है।

यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है।

ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओंका काम बनाना चाहता है।।१०।।

जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसीको किसी प्रकारका दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रुने ब्रह्मचारीका वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया।।११।।

यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परन्तु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं।

वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदयमें दया भी बहुत है।

इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते।।१२।।

ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें।

इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है।’ यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोंने अपने-अपने हथियार उठा लिये।।१३।।

परीक्षित्! राजा बलिकी इच्छा न होनेपर भी वे सब बड़े क्रोधसे शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामन-भगवान् को मारनेके लिये टूट पड़े।।१४।।

परीक्षित्! जब विष्णुभगवान् के पार्षदोंने देखा कि दैत्योंके सेनापति आक्रमण करनेके लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया।।१५।।

नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत – ये सभी भगवान् के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं।

वे असुरोंकी सेनाका संहार करने लगे।।१६-१७।।

जब राजा बलिने देखा कि भगवान् के पार्षद मेरे सैनिकोंको मार रहे हैं और वे भी क्रोधमें भरकर उनसे लड़नेके लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्यके शापका स्मरण करके उन्हें युद्ध करनेसे रोक दिया।।१८।।

उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा – ‘भाइयो! मेरी बात सुनो।

लड़ो मत, वापस लौट आओ।

यह समय हमारे कार्यके अनुकूल नहीं है।।१९।।

दैत्यो! जो काल समस्त प्राणियोंको सुख और दुःख देनेकी सामर्थ्य रखता है – उसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नोंसे दबा दूँ, तो यह उसकी शक्तिसे बाहर है।।२०।।

जो पहले हमारी उन्नति और देवताओंकी अवनतिके कारण हुए थे, वही कालभगवान् अब उनकी उन्नति और हमारी अवनतिके कारण हो रहे हैं।।२१।।

बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपाय – इनमेंसे किसी भी साधनके द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य कालपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता।।२२।।

जब दैव तुमलोगोंके अनुकूल था, तब तुमलोगोंने भगवान् के इन पार्षदोंको कई बार जीत लिया था।

पर देखो, आज वे ही युद्धमें हमपर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं।।२३।।

यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे।

इसलिये उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्य-सिद्धिके लिये अनुकूल हो’।।२४।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान् के पार्षदोंसे हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातलमें चले गये।।२५।।

उनके जानेके बाद भगवान् के हृदयकी बात जानकर पक्षिराज गरुडने वरुणके पाशोंसे बलिको बाँध दिया।

उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञमें सोमपान होनेवाला था।।२६।।

जब सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने बलिको इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओंमें लोग ‘हाय-हाय!’ करने लगे।।२७।।

यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थी – फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे।

परीक्षित्! उस समय भगवान् ने बलिसे कहा।।२८।।

‘असुर! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो।।२९।।

जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और जहाँतक बादल जाकर बरसते हैं – वहाँतककी सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी।।३०।।

तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैरसे भूर्लोक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया है।

इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है।।३१।।

फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा।

तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो।।३२।।

जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं।

स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता है।।३३।।

तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ।

तुमने मुझसे ‘दूँगा’ – ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया।

अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो’।।३४।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः।।२१।।


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