भागवत पुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय – 9


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प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति

नारदजी कहते हैं – इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान् के क्रोधावेशको शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके।

किसीको उसका ओर-छोर नहीं दीखता था।।१।।

देवताओंने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजीको भेजा।

उन्होंने जाकर जब नृसिंहभगवान् का वह महान् अद् भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पासतक न जा सकीं।

उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था।।२।।

तथेति शनकै राजन्महाभागवतोऽर्भकः ।

उपेत्य१ भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः।।

तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान् कुपित हुए थे।

अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’।।३।।

भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरेसे भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टांग लोट गये।।४।।

नृसिंहभगवान् ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है।

उनका हृदय दयासे भर गया।

उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है।।५।।

भगवान् के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये।

तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया।

उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मग्न होकर भगवान् के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया।

उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दाश्रु झरने लगे।।६।।

प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनोंसे भगवान् को देख रहे थे।

भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान् के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद् गद वाणीसे स्तुति की।।७।।

प्रह्लादजीने कहा – ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है।

फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके।

फिर मैं तो घोर असुर-जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं?।।८।।

मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग – ये सभी गुण परमपुरुष भगवान् को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं – परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे।।९।।

मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान् के चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता।।१०।।

सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण हैं।

उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है।

वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं।

जैसे अपने मुखका सौन्दर्य दर्पणमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान् के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है।।११।।

इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शंकाके अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान् की महिमाका वर्णन कर रहा हूँ।

इस महिमाके गानका ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्रमें पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।।१२।।

भगवन्! आप सत्त्वगुणके आश्रय हैं।

ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं।

ये हम दैत्योंकी तरह आपसे द्वेष नहीं करते।

प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदयके लिये तथा उसे आत्मानन्दकी प्राप्ति करानेके लिये अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करते हैं।।१३।।

जिस असुरको मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका।

अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये।

जैसे बिच्छू और साँपकी मृत्युसे सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्यके संहारसे सभी लोगोंको बड़ा सुख मिला है।

अब सब आपके शान्त स्वरूपके दर्शनकी बाट जोह रहे हैं।

नृसिंहदेव! भयसे मुक्त होनेके लिये भक्तजन आपके इस रूपका स्मरण करेंगे।।०४।।

परमात्मन्! आपका मुख बड़ा भयावना है।

आपकी जीभ लपलपा रही है।

आँखें सूर्यके समान हैं।

भौंहें चढ़ी हुई हैं।

बड़ी पैनी दाढ़ें हैं।

आँतोंकी माला, खूनसे लथपथ गरदनके बाल, बर्छेकी तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजोंको भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओंको फाड़ डालनेवाले आपके इन नखोंको देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ।।१५।।

दीनबन्धो! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्रमें पिसनेसे।

मैं अपने कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयंकर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ।

मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं?।।१६।।

अनन्त! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा।

उन दुःखोंको मिटानेकी जो दवा है, वह भी दुःखरूप ही है।

मैं न जाने कबसे अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ।

अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ।।१७।।

प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं।

अहेतुक हितैषी सुहृद् हैं।

आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य हैं।

मैं ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका संग तो मुझे मिलता ही रहेगा।।१८।।

भगवान् नृसिंह! इस लोकमें दुःखी जीवोंका दुःख मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है।

यहाँतक कि मा-बाप बालककी रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती।।१९।।

सत्त्वादि गुणोंके कारण भिन्न-भिन्न स्वभावके जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं।

वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।।२०।।

पुरुषकी अनुमतिसे कालके द्वारा गुणोंमें क्षोभ होनेपर माया मनःप्रधान लिंगशरीरका निर्माण करती है।

यह लिंगशरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपोंमें आसक्त – छन्दोमय है।

यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा – इन सोलह विकाररूप अरोंसे युक्त संसार – चक्र है।

जन्मरहित प्रभो! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसारचक्रको पार कर जाय?।।२१।।

सर्वशक्तिमान् प्रभो! माया इस सोलह अरोंवाले संसारचक्रमें डालकर ईखके समान मुझे पेर रही है।

आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणोंको सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं।

मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधिमें खींच लीजिये।।२२।।

भगवन्! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये।

जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं।

किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला।।२३।।

इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसारके प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है।

इसलिये मुझे आप अपने दासोंकी सन्निधिमें ले चलिये।।२४।।

विषयभोगकी बातें सुननेमें ही अच्छी लगती हैं, वास्तवमें वे मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद् गमस्थान है।

कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर! इन दोनोंकी क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता।

वह कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले भोगके नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामनाकी आग बुझानेकी चेष्टा करता है!।।२५।।

प्रभो! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंशमें रजोगुणसे उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिरपर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मीजीके सिरपर भी कभी नहीं रखा।।२६।।

दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं।

फिर भी कल्पवृक्षके समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजनसे ही प्राप्त होता है।

सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है।।२७।।

भगवन्! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँसनेके लिये सदा तैयार रहता है।

विषय-भोगोंकी इच्छावाले पुरुष उसीमें गिरे हुए हैं।

मैं भी संगवश उसके पीछे उसीमें गिरने जा रहा था।

परन्तु भगवन्! देवर्षि नारदने मुझे अपनाकर बचा लिया।

तब भला, मैं आपके भक्तजनोंकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ।।२८।।

अनन्त! जिस समय मेरे पिताने अन्याय करनेके लिये कमर कसकर हाथमें खड़ग ले लिया और वह कहने लगा कि ‘यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की और मेरे पिताका वध किया।

मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियोंका वचन सत्य करनेके लिये ही वैसा किया था।।२९।।

भगवन्! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं।

क्योंकि इसके आदिमें आप ही कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी केवल आप ही हैं।

आप अपनी मायासे गुणोंके परिणाम-स्वरूप इस जगत् की सृष्टि करके इसमें पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं।।३०।।

भगवन्! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं।

अपने-परायेका भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दोंकी माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है – जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्यकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्रकी दृष्टिसे दोनों एक ही हैं।।३१।।

भगवन्! आप इस सम्पूर्ण विश्वको स्वयं अपनेमें समेटकर आत्मसुखका अनुभव करते निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जलमें शयन करते हैं।

उस समय अपने स्वयं-सिद्ध योगके द्वारा बाह्य दृष्टिको बंद कर आप अपने स्वरूपके प्रकाशमें निद्राको विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपदमें छ रहते हैं।

उस समय आप न तो तमोगुणसे ही युक्त होते और न तो विषयोंको ही स्वीकार करते हैं।।३२।।

आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृतिके गुणोंको प्रेरित करते हैं, इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है।

पहले यह आपमें ही लीन था।

जब प्रलयकालीन जलके भीतर शेषशय्यापर शयन करनेवाले आपने योगनिद्राकी समाधि त्याग दी, तब वटके बीजसे विशाल वृक्षके समान आपकी नाभिसे ब्रह्माण्डकमल उत्पन्न हुआ।।३३।।

उसपर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए।

जब उन्हें कमलके सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपनेमें बीजरूपसे व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपनेसे बाहर समझकर जलके भीतर घुसकर सौ वर्षतक ढूँढ़ते रहे।

परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला।

यह ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उग आनेपर उसमें व्याप्त बीजको कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है।।३४।।

जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।

ब्रह्माको बड़ा आश्चर्य हुआ।

वे हारकर कमलपर बैठ गये।

बहुत समय बीतनेपर तीव्र तपस्या करनेसे जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप अपने शरीरमें ही ओत-प्रोतरूपसे स्थित आपके सूक्ष्मरूपका साक्षात्कार हुआ – ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वीमें व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्धका होता है।।३५।।

विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जंघा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधोंसे सम्पन्न था।

चौदहों लोक उसके विभिन्न अंगोंके रूपमें शोभायमान थे।

वह भगवान् की एक लीलामयी मूर्ति थी।

उसे देखकर ब्रह्माजीको बड़ा आनन्द हुआ।।३६।।

रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नामके दो बड़े बलवान् दैत्य थे।

जब वे वेदोंको चुराकर ले गये, तब आपने हयग्रीव-अवतार ग्रहण किया और उन दोनोंको मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लोटा दीं।

वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है – महात्मालोग इस प्रकार वर्णन करते हैं।।३७।।

पुरुषोत्तम! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकोंका पालन तथा विश्वके द्रोहियोंका संहार करते हैं।

इन अवतारोंके द्वारा आप प्रत्येक युगमें उसके धर्मोंकी रक्षा करते हैं।

कलियुगमें आप छिपकर गुप्तरूपसे ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम ‘त्रियुग’ भी है।।३८।।

वैकुण्ठनाथ! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है।

वह पाप-वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है।

वह प्रायः ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदिकी चिन्ताओंसे व्याकुल रहता है।

इसे आपकी लीला-कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता।

इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ।

ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ?।।३९।।

अच्युत! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है।

जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर, पेट भोजनकी ओर, कान मधुर संगीतकी ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी ओर मुझे खींचते रहते हैं।

इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी ओर ले जानेको जोर लगाती ही रहती हैं।

मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही हों।।४०।।

इस प्रकार यह जीव अपने कर्मोंके बन्धनमें पड़कर इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरा हुआ है।

जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है।

यह अपना है, यह पराया है – इस प्रकारके भेद- भावसे युक्त होकर किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता।

आप इस मूढ़ जीव-जातिकी यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये।

इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन्! इन प्राणियोंको भी अब पार लगा दीजिये।।४१।।

जगद् गुरो! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं।

ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव-नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है? दीनजनोंके परमहितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं।

हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती।।४२।।

परमात्मन्! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है।

क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृतको भी तिरस्कृत करनेवाली – परमामृतस्वरूप हैं।

मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोंका मायामय झूठा सुख प्राप्त करनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं।।४३।।

मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं।

वे दुसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते।

परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है।

मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता।

और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता।।४४।।

घरमें फँसे हुए लोगोंको जो मैथुन आदिका सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है – जैसे कोई दोनों हाथोंसे खुजला रहा हो तो उस खुजलीमें पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालुम पड़ता है, परन्तु पीछेसे दुःख-ही-दुःख होता है।

किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगनेपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं।

इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं।

सहनेसे ही उनका नाश होता है।।४५।।

पुरुषोत्तम! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं – मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि।

परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं उनके लिये ये सब जीविकाके साधन-व्यापारमात्र रह जाते हैं।

और दम्भियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जानेपर वह भी नहीं।।४६।।

वेदोंने बीज और अंकुरके समान आपके दो रूप बताये हैं – कार्य और कारण।

वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं।

परन्तु इन कार्य और कारणरूपोंको छोड़कर आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है।

काष्ठ-मन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं।

क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं।।४७।।

अनन्त प्रभो! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण – सब कुछ केवल आप ही हैं।

और तो क्या, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है।।४८।।

समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन्! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं।

ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते हैं।।४९।।

एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः ।

एकान्तित्वाद् भगवति नैच्छत् तानसुरोत्तमः।।५५

परम पूज्य! आपकी सेवाके छः अंग हैं – नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण।

इस षडंगसेवाके बिना आपके चरणकमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व हैं।।५०।।

नारदजी कहते हैं – इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान् के स्वरूपभूत गुणोंका वर्णन किया।

इसके बाद वे भगवान् के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये।

नृसिंहभगवान् का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले।।५१।।

श्रीनृसिंहभगवान् ने कहा – परम कल्याण-स्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो।

दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो।

मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ।।५२।।

आयुष्मन्! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है।

परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणीके हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती।।५३।।

मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ।

इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं।।५४।।

असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान् के अनन्य प्रेमी थे।

इसलिये बड़े-बड़े लोगोंको प्रलोभनमें डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की।।५५।।

इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे प्रह्रादचरिते भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः।।९।।


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