शिव पुराण – वायवीय संहिता – पूर्वखण्ड – 16


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ऋषियोंके प्रश्नका उत्तर देते हुए वायुदेवके द्वारा शिवके स्वतन्त्र एवं सर्वानुग्राहक स्वरूपका प्रतिपादन

तदनन्तर ऋषियोंने कई कारण दिखाकर पूछा – वायुदेव! यदि शिव सदा शान्तभावसे रहकर ही सबपर अनुग्रह करते हैं तो सबकी अभिलाषाओंको एक साथ ही पूर्ण क्यों नहीं कर देते? जो सब कुछ करनेमें समर्थ होगा, वह सबको एक साथ ही बन्धन-मुक्त क्यों नहीं कर सकेगा? यदि कहें अनादिकालसे चले आनेवाले सबके विचित्र कर्म अलग-अलग हैं, अतः सबको एक समान फल नहीं मिल सकता तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि कर्मोंकी विचित्रता भी यहाँ नियामक नहीं हो सकती।

कारण कि वे कर्म भी ईश्वरके करानेसे ही होते हैं।

इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ।

उपर्युक्त-रूपसे विभिन्न युक्तियोंद्वारा फैलायी गयी नास्तिकता जिस प्रकारसे शीघ्र ही निवृत्त हो जाय, वैसा उपदेश दीजिये।

वायुदेवताने कहा – ब्राह्मणो! आपलोगोंने युक्तियोंसे प्रेरित होकर जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है; क्योंकि किसी बातको जाननेकी इच्छा अथवा तत्त्वज्ञानके लिये उठाया गया प्रश्न साधु-बुद्धिवाले पुरुषोंमें नास्तिकताका उत्पादन नहीं कर सकता।

मैं इस विषयमें ऐसा प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, जो सत्पुरुषोंके मोहको दूर करनेवाला है।

असत् पुरुषोंका जो अन्यथा भाव होता है, उसमें प्रभु शिवकी कृपाका अभाव ही कारण है।

परिपूर्ण परमात्मा शिवके परम अनुग्रहके बिना कुछ भी कर्तव्य नहीं है, ऐसा निश्चय किया गया है।

परानुग्रह कर्ममें स्वभाव ही पर्याप्त (पूर्णतः समर्थ) है, अन्यथा निःस्वभाव पुरुष किसीपर भी अनुग्रह नहीं कर सकता।

पशु और पाशरूप सारा जगत् ही पर कहा गया है।

वह अनुग्रहका पात्र है।

परको अनुगृहीत करनेके लिये पतिकी आज्ञाका समन्वय आवश्यक है।

पति आज्ञा देनेवाला है, वही सदा सबपर अनुग्रह करता है।

उस अनुग्रहके लिये ही आज्ञा-रूप अर्थको स्वीकार करनेपर शिव परतन्त्र कैसे कहे जा सकते हैं।

अनुग्राहककी अपेक्षा न रखकर कोई भी अनुग्रह सिद्ध नहीं हो सकता।

अतः स्वातन्त्र्य-शब्दके अर्थकी अपेक्षा न रखना ही अनुग्रहका लक्षण है।

जो अनुग्राह्य है, वह परतन्त्र माना जाता है; क्योंकि पतिके अनुग्रहके बिना उसे भोग और मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती।

जो मूर्त्यात्मा हैं, वे भी अनुग्रहके पात्र हैं; क्योंकि उनसे भी शिवकी आज्ञाकी निवृत्ति नहीं होती – वे भी शिवकी आज्ञासे बाहर नहीं हैं।

यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो शिवकी आज्ञाके अधीन न हो।

सकल (सगुण या साकार) होनेपर भी जिसके द्वारा हमें निष्कल (निर्गुण या निराकार) शिवकी प्राप्ति होती है, उस मूर्ति या लिंगके रूपमें साक्षात् शिव ही विराज रहे हैं।

वह ‘शिवकी मूर्ति है’ यह बात तो उपचारसे कही जाती है।

जो साक्षात् निष्कल तथा परम कारणरूप शिव हैं, वे किसीके द्वारा भी साकार अनुभावसे उपलक्षित नहीं होते, ऐसी बात नहीं है।

यहाँ प्रमाणगम्य होना उनके स्वभावका उपपादक नहीं है, प्रमाण अथवा प्रतीकमात्रसे अपेक्षा-बुद्धिका उदय नहीं होता।

वे परम तत्त्वके उपलक्षणमात्र हैं, इसके सिवा उनका और कोई अभिप्राय नहीं है।

कोई-न-कोई मूर्ति ही आत्माका साक्षात् उपलक्षण होती है।

‘शिवकी मूर्ति है’ इस कथनका अभिप्राय यह है कि उस मूर्तिके रूपमें परम शिव विराजमान हैं।

मूर्ति उनका उपलक्षण है।

जैसे काष्ठ आदि आलम्बनका आश्रय लिये बिना केवल अग्नि कहीं उपलब्ध नहीं होती, उसी प्रकार शिव भी मूर्त्यात्मामें आरूढ़ हुए बिना उपलब्ध नहीं होते।

यही वस्तुस्थिति है।

जैसे किसीसे यह कहनेपर कि ‘तुम आग ले आओ’ उसके द्वारा जलती हुई लकड़ी आदिके सिवा साक्षात् अग्नि नहीं लायी जाती, उसी प्रकार शिवका पूजन भी मूर्तिरूपमें ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।

इसीलिये पूजा आदिमें ‘मूर्त्यात्मा’ की परिकल्पना होती है; क्योंकि मूर्त्यात्माके प्रति जो कुछ किया जाता है, वह साक्षात् शिवके प्रति किया गया ही माना गया है।

लिंग आदिमें विशेषतः अर्चाविग्रहमें जो पूजनकृत्य होता है, वह भगवान् शिवका ही पूजन है।

उन-उन मूर्तियोंके रूपमें शिवकी भावना करके हमलोग शिवकी ही उपासना करते हैं।

जैसे परमेष्ठी शिव मूर्त्यात्मापर अनुग्रह करते हैं, उसी प्रकार मूर्त्यात्मामें स्थित शिव हम पशुओंपर अनुग्रह करते हैं।

परमेष्ठी शिवने लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही सदाशिव आदि सम्पूर्ण मूर्त्यात्माओंको अधिष्ठित – अपनी आज्ञामें रखकर अनुगृहीत किया है।

भगवान् शिव सबपर अनुग्रह ही करते हैं, किसीका निग्रह नहीं करते, क्योंकि निग्रह करनेवाले लोगोंमें जो दोष होते हैं, वे शिवमें असम्भव हैं।

ब्रह्मा आदिके प्रति जो निग्रह देखे गये हैं, वे भी श्रीकण्ठमूर्ति शिवके द्वारा लोकहितके लिये ही किये गये हैं।

विद्वानोंकी दृष्टिमें निग्रह भी स्वरूपसे दूषित नहीं है।

(जब वह राग-द्वेषसे प्रेरित होकर किया जाता है, तभी निन्दनीय माना जाता है।) इसीलिये दण्डनीय अपराधियों-को राजाओंकी ओरसे मिले हुए दण्डकी प्रशंसा की जाती है।

यदि साधुकी रक्षा करनी है तो असाधुका निवारण करना ही होगा।

पहले साम आदि तीन उपायोंसे असाधुके निवारणका प्रयत्न किया जाता है।

यदि यह प्रयत्न सफल नहीं हुआ तो अन्तमें चौथे उपाय दण्डका ही आश्रय लिया जाता है।

यह दण्डान्त अनुशासन लोकहितके लिये ही किया जाना चाहिये।

यही उसके औचित्यको परिलक्षित कराता है।

यदि अनुशासन इसके विपरीत हो तो उसे अहितकर कहते हैं।

जो सदा हितमें ही लगे रहनेवाले हैं, उन्हें ईश्वरका दृष्टान्त अपने सामने रखना चाहिये।

(ईश्वर केवल दुष्टोंको ही दण्ड देते हैं, इसीलिये निर्दोष कहे जाते हैं।) अतः जो दुष्टोंको ही दण्ड देता है, वह उस निग्रह-कर्मको लेकर सत्पुरुषोंद्वारा लांछित कैसे किया जा सकता है।

लोकमें जहाँ कहीं भी निग्रह होता है, वह यदि विद्वेषपूर्वक न हो, तभी श्रेष्ठ माना जाता है।

जो पिता पुत्रको दण्ड देकर उसे अधिक शिक्षित बनाता है, वह उससे द्वेष नहीं करता।

शिवकी आज्ञाका पालन ही हित है और जो हित है, वही उनका अनुग्रह है।

अतएव सबको हितमें नियुक्त करनेवाले शिव सबपर अनुग्रह करनेवाले कहे गये हैं।

जो उपकार-शब्दका अर्थ है, उसे भी अनुग्रह ही कहा गया है; क्योंकि उपकार भी हितरूप ही होता है।

अतः सबका उपकार करनेवाले शिव सर्वानुग्राहक हैं।

शिवके द्वारा जड-चेतन सभी सदा हितमें ही नियुक्त होते हैं।

परंतु सबको जो एक साथ और एक समान हितकी उपलब्धि नहीं होती, इसमें उनका स्वभाव ही प्रतिबन्धक है।

जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा सभी कमलोंको विकासके लिये प्रेरित करते हैं, परंतु वे अपने-अपने स्वभावके अनुसार एक साथ और एक समान विकसित नहीं होते, स्वभाव भी पदार्थोंके भावी अर्थका कारण होता है, किंतु वह नष्ट होते हुए अर्थको कर्ताओंके लिये सिद्ध नहीं कर सकता।

जैसे अग्निका संयोग सुवर्णको ही पिघलाता है, कोयले या अंगारको नहीं, उसी प्रकार भगवान् शिव परिपक्व मलवाले पशुओंको ही बन्धनमुक्त करते हैं, दूसरोंको नहीं।

जो वस्तु जैसी होनी चाहिये, वैसी वह स्वयं नहीं बनती।

वैसी बननेके लिये कर्ताकी भावनाका सहयोग होना आवश्यक है।

कर्ताकी भावनाके बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है, अतः कर्ता सदा स्वतन्त्र होता है।

सबपर अनुग्रह करनेवाले शिव जिस तरह स्वभावसे ही निर्मल हैं, उसी तरह ‘जीव’ संज्ञा धारण करनेवाली आत्माएँ स्वभावतः मलिन होती हैं।

यदि ऐसी बात न होती तो वे जीव क्यों नियमपूर्वक संसारमें भटकते और शिव क्यों संसार-बन्धनसे परे रहते? विद्वान् पुरुष कर्म और मायाके बन्धनको ही जीवका ‘संसार’ कहते हैं।

यह बन्धन जीवको ही प्राप्त होता है, शिवको नहीं।

इसमें कारण है, जीवका स्वाभाविक मल।

वह कारणभूत मल जीवोंका अपना स्वभाव ही है, आगन्तुक नहीं है।

यदि आगन्तुक होता तो किसीको भी किसी भी कारणसे बन्धन प्राप्त हो जाता।

जो यह हेतु है, वह एक है; क्योंकि सब जीवोंका स्वभाव एक-सा है।

यद्यपि सबमें एक-सा आत्मभाव है, तो भी मलके परिपाक और अपरिपाकके कारण कुछ जीव बद्ध हैं और कुछ बन्धनसे मुक्त हैं।

बद्ध जीवोंमें भी कुछ लोग लय और भोगके अधिकारके अनुसार उत्कृष्ट और निकृष्ट होकर ज्ञान और ऐश्वर्य आदिकी विषमताको प्राप्त होते हैं अर्थात् कुछ लोग अधिक ज्ञान और ऐश्वर्यसे युक्त होते हैं तथा कुछ लोग कम।

कोई मूर्त्यात्मा होते हैं और कोई साक्षात् शिवके समीप विचरनेवाले होते हैं।

मूर्त्यात्माओंमें कोई तो शिवस्वरूप हो छहों अध्वाओंके ऊपर स्थित होते हैं, कोई अध्वाओंके मध्यमार्गमें महेश्वर होकर रहते हैं और कोई निम्नभागमें रुद्ररूपसे स्थित होते हैं।

शिवके समीपवर्ती स्वरूपमें भी मायासे परे होनेके कारण उत्कृष्ट, मध्यम और निकृष्टके भेदसे तीन श्रेणियाँ होती हैं – वहाँ निम्न स्थानमें आत्माकी स्थिति है, मध्यम स्थानमें अन्तरात्माकी स्थिति है और जो सबसे उत्कृष्ट श्रेणीका स्थान है, उसमें परमात्माकी स्थिति है।

ये ही क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कहलाते हैं।

कोई वसु (जीव) परमात्मपदका आश्रय लेनेवाले होते हैं, कोई अन्तरात्मपदपर और आत्मपदपर प्रतिष्ठित होते हैं।

भगवान् शिव तो अनायास ही समस्त पशुओंको बन्धनसे मुक्त करनेमें समर्थ हैं।

फिर वे उन्हें बन्धनमें डाले रखकर क्यों दुःख देते हैं? यहाँ ऐसा विचार या संदेह नहीं करना चाहिये; क्योंकि सारा संसार दुःखरूप ही है, ऐसा विचारवानोंका निश्चित सिद्धान्त है।

जो स्वभावतः दुःखमय है, वह दुःखरहित कैसे हो सकता है।

स्वभावमें उलट-फेर नहीं हो सकता।

वैद्यकी दवासे रोग अरोग नहीं होता।

वह रोगपीड़ित मनुष्यका अपनी दवासे सुखपूर्वक उद्धार कर देता है।

इसी प्रकार जो स्वभावतः मलिन और स्वभावसे ही दुःखी हैं, उन पशुओंको अपनी आज्ञारूपी ओषधि देकर शिव दुःखसे छुड़ा देते हैं।

रोग होनेमें वैद्य कारण नहीं है, परंतु संसारकी उत्पत्तिमें शिव कारण हैं।

अतः रोग और वैद्यके दृष्टान्तसे शिव और संसारके दार्ष्टान्तमें समानता नहीं है।

इसलिये इसके द्वारा शिवपर दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

जब दुःख स्वभाव-सिद्ध है, तब शिव उसके कारण कैसे हो सकते हैं।

जीवोंमें जो स्वाभाविक मल है, वही उन्हें संसारके चक्रमें डालता है।

संसारका कारणभूत जो मल – अचेतन माया आदि है, वह शिवका सांनिध्य प्राप्त किये बिना स्वयं चेष्टाशील नहीं हो सकता।

जैसे चुम्बकमणि लोहेका सांनिध्य पाकर ही उपकारक होता है – लोहेको खींचता है, उसी प्रकार शिव भी जड माया आदिका सांनिध्य पाकर ही उसके उपकारक होते हैं, उसे सचेष्ट बनाते हैं।

उनके विद्यमान सांनिध्यको अकारण हटाया नहीं जा सकता।

अतः जगत् के लिये जो सदा अज्ञात हैं, वे शिव ही इसके अधिष्ठाता हैं।

शिवके बिना यहाँ कोई भी प्रवृत्त (चेष्टाशील) नहीं होता, उनकी आज्ञाके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।

उनसे प्रेरित होकर ही यह सारा जगत् विभिन्न प्रकारकी चेष्टाएँ करता है, तथापि वे शिव कभी मोहित नहीं होते।

उनकी आज्ञारूपिणी जो शक्ति है, वही सबका नियन्त्रण करती है।

उसका सब ओर मुख है।

उसीने सदा इस सम्पूर्ण दृश्यप्रपंचका विस्तार किया है, तथापि उसके दोषसे शिव दूषित नहीं होते।

जो दुर्बुद्धि मानव मोहवश इसके विपरीत मान्यता रखता है, वह नष्ट हो जाता है।

शिवकी शक्तिके वैभवसे ही संसार चलता है, तथापि इससे शिव दूषित नहीं होते।

इसी समय आकाशसे शरीररहित वाणी सुनायी दी – ‘सत्यम् ओम् अमृतं सौम्यम्’* इन पदोंका वहाँ स्पष्ट उच्चारण हुआ, उसे सुनकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए।

उनके समस्त संशयोंका निवारण हो गया तथा उन मुनियोंने विस्मित हो प्रभु पवनदेवको प्रणाम किया।

इस प्रकार उन मुनियोंको संदेहरहित करके भी वायुदेवने यह नहीं माना कि इन्हें पूर्ण ज्ञान हो गया।

‘इनका ज्ञान अभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ है’ ऐसा समझकर ही वे इस प्रकार बोले।

वायुदेवताने कहा – मुनियो! परोक्ष और अपरोक्षके भेदसे ज्ञान दो प्रकारका माना गया है।

परोक्ष ज्ञानको अस्थिर कहा जाता है और अपरोक्ष ज्ञानको सुस्थिर।

युक्तिपूर्ण उपदेशसे जो ज्ञान होता है, उसे विद्वान् पुरुष परोक्ष कहते हैं।

वही श्रेष्ठ अनुष्ठानसे अपरोक्ष हो जायगा।

अपरोक्ष ज्ञानके बिना मोक्ष नहीं होता, ऐसा निश्चय करके तुमलोग आलस्यरहित हो श्रेष्ठ अनुष्ठानकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करो।

(अध्याय ३२)


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