शिव पुराण – कैलास संहिता – 2


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


प्रणवके वाच्यार्थरूप सदाशिवके स्वरूपका ध्यान, वर्णाश्रम-धर्मके पालनका महत्त्व, ज्ञानमयी पूजा, संन्यासके पूर्वांगभूत नान्दीश्राद्ध एवं ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन

श्रीस्कन्दने कहा – महाभाग मुनीश्वर वामदेव! तुम्हें साधुवाद है; क्योंकि तुम भगवान् शिवके अत्यन्त भक्त हो और शिवतत्त्वके ज्ञाताओंमें सबसे श्रेष्ठ हो।

तीनों लोकोंमें कहीं कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो तुम्हें ज्ञात न हो।

तथापि तुम लोकपर अनुग्रह करनेवाले हो, इसलिये तुम्हारे समक्ष इस विषयका वर्णन करूँगा।

इस लोकमें जितने जीव हैं, वे सब नाना प्रकारके शास्त्रोंसे मोहित हैं।

परमेश्वरकी अति विचित्र मायाने उन्हें परमार्थसे वंचित कर दिया है।

अतः प्रणवके वाच्यार्थभूत साक्षात् महेश्वरको वे नहीं जानते।

वे महेश्वर ही सगुण-निर्गुण तथा त्रिदेवोंके जनक परब्रह्म परमात्मा हैं।

मैं अपना दाहिना हाथ उठाकर तुमसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यह सत्य है, सत्य है, सत्य है।

मैं बारंबार इस सत्यको दोहराता हूँ कि प्रणवके अर्थ साक्षात् शिव ही हैं।

श्रुतियों, स्मृति-शास्त्रों, पुराणों तथा आगमोंमें प्रधानतया उन्हींको प्रणवका वाच्यार्थ बताया गया है।

जहाँसे मनसहित वाणी उस परमेश्वरको न पाकर लौट आती है, जिसके आनन्दका अनुभव करनेवाला पुरुष किसीसे डरता नहीं, ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्रसहित यह सम्पूर्ण जगत् भूतों और इन्द्रियसमुदायके साथ सर्वप्रथम जिससे प्रकट होता है, जो परमात्मा स्वयं किसीसे और कभी भी उत्पन्न नहीं होता, जिसके निकट विद्युत्, सूर्य और चन्द्रमाका प्रकाश काम नहीं देता तथा जिसके प्रकाशसे ही यह सम्पूर्ण जगत् सब ओरसे प्रकाशित होता है, वह परब्रह्म परमात्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण स्वयं ही सर्वेश्वर ‘शिव’ नाम धारण करता है।* हृदयाकाशके भीतर विराजमान जो भगवान् शम्भु मुमुक्षु पुरुषोंके ध्येय हैं, जो सर्वव्यापी प्रकाशात्मा, भासस्वरूप एवं चिन्मय हैं, जिन परम पुरुषकी पराशक्ति शिवा भक्तिभावसे सुलभ मनोहरा, निर्गुण, अपने गुणोंसे ही निगूढ़ और निष्कल हैं, उन परमेश्वरके तीन रूप हैं – स्थूल, सूक्ष्म और इन दोनोंसे परे।

मुने! मुमुक्षु योगियोंको नित्य क्रमशः उनके इन स्वरूपोंका ध्यान करना चाहिये।

वे शम्भु निष्कल, सम्पूर्ण देवताओंके सनातन आदिदेव, ज्ञान-क्रिया-स्वभाव एवं परमात्मा कहे जाते हैं, उन देवाधिदेवकी साक्षात् मूर्ति सदाशिव हैं।

ईशानादि पाँच मन्त्र उनके शरीर हैं।

वे महादेवजी पंचकला रूप हैं।

उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकके समान उज्ज्वल है।

वे सदा प्रसन्न रहनेवाले तथा शीतल आभासे युक्त हैं।

उन प्रभुके पाँच मुख, दस भुजाएँ और पंद्रह नेत्र हैं।

‘ईशान’ मन्त्र उनका मुकुटमण्डित मस्तक है! ‘तत्पुरुष’ मन्त्र उन पुरातन प्रभुका मुख है।

‘अघोर’ मन्त्र हृदय है।

‘वामदेव’ मन्त्र गुह्य प्रदेश है तथा ‘सद्योजात’ मन्त्र उनके पैर हैं।

इस प्रकार वे पंचमन्त्र रूप हैं।

वे ही साक्षात् साकार और निराकार परमात्मा हैं।

सर्वज्ञता आदि छः शक्तियाँ उनके शरीरके छः अंग हैं।

वे शब्दादि शक्तियोंसे स्फुरित हृदय-कमलके द्वारा सुशोभित हैं।

वामभागमें मनोन्मनी नामक अपनी शक्तिसे विभूषित हैं।

अब मैं मन्त्र आदि छः प्रकारके अर्थोंको प्रकट करनेके लिये जो अर्थोपन्यासकी पद्धति है, उसके द्वारा प्रणवके समष्टि और व्यष्टिसम्बन्धी भावार्थका वर्णन करूँगा; परंतु पहले उपदेशका क्रम बताना उचित है, इसलिये उसीको सुनो।

मुने! इस मानवलोकमें चार वर्ण प्रसिद्ध हैं।

उनमेंसे जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – ये तीन वर्ण हैं; उन्हींका वैदिक आचारसे सम्बन्ध है।

त्रैवर्णिकोंकी सेवा ही जिनके लिये सारभूत धर्म है, उन शूद्रोंका वेदाध्ययनमें अधिकार नहीं है।

यदि सब त्रैवर्णिक अपने-अपने आश्रम-धर्मके पालनमें हार्दिक अनुरागके साथ लगे हों तो उनका ही श्रुतियों और स्मृतियोंमें प्रतिपादित धर्मके अनुष्ठानमें अधिकार है, दूसरेका कदापि नहीं।

श्रुति और स्मृतिमें प्रतिपादित कर्मका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष अवश्य सिद्धिको प्राप्त होगा, यह बात वेदोक्तमार्गको दिखानेवाले परमेश्वरने स्वयं कही है।

वर्णधर्म और आश्रम-धर्मके पालनजनित पुण्यसे परमेश्वरका पूजन करके बहुत-से श्रेष्ठ मुनि उनके सायुज्यको प्राप्त हो गये हैं।

ब्रह्मचर्यके पालनसे ऋषियोंकी, यज्ञकर्मोंके अनुष्ठानसे देवताओंकी तथा संतानोत्पादनसे पितरोंकी तृप्ति होती है – ऐसा श्रुतिने कहा है।

इस प्रकार ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा पितृ-ऋण – इन तीनोंसे मुक्त हो वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट होकर मनुष्य शीत, उष्ण तथा सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंको सहन करते हुए जितेन्द्रिय, तपस्वी और मिताहारी हो यम-नियम आदि योगका अभ्यास करे, जिससे बुद्धि निश्चल तथा अत्यन्त दृढ़ हो जाय।

इस प्रकार क्रमशः अभ्यास करके शुद्धचित्त हुआ पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंका संन्यास कर दे।

समस्त कर्मोंका संन्यास करनेके पश्चात् ज्ञानके समादरमें तत्पर रहे।

ज्ञानके समादरको ही ज्ञानमयी पूजा कहते हैं।

वह पूजा जीवकी साक्षात् शिवके साथ एकताका बोध कराकर जीवन्मुक्तिरूप फल देनेवाली है।

यतियोंके लिये इस पूजाको सर्वोत्तम तथा निर्दोष समझना चाहिये।

महाप्राज्ञ! तुमपर स्नेह होनेके कारण लोकानुग्रहकी कामनासे मैं उस पूजाकी विधि बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो।

साधकको चाहिये कि वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वार्थके ज्ञाता, वेदान्तज्ञानके पारंगत तथा बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ आचार्यकी शरणमें जाय।

उत्तम बुद्धिसे युक्त एवं चतुर साधक आचार्यके समीप जाकर विधिपूर्वक दण्ड-प्रणाम आदिके द्वारा उन्हें यत्नपूर्वक संतुष्ट करे।

फिर गुरुकी आज्ञा ले वह बारह दिनोंतक केवल दूध पीकर रहे।

तदनन्तर शुक्लपक्षकी चतुर्थी या दशमीको प्रातःकाल विधिवत् स्नानकर शुद्धचित्त हुआ विद्वान् साधक नित्य-कर्म करके गुरुको बुलाकर शास्त्रोक्त विधिसे नान्दीश्राद्ध करे।

नान्दीश्राद्धमें विश्वेदेवोंकी संज्ञा सत्य और वसु बतायी गयी है।

प्रथम देवश्राद्धमें नान्दीमुख-देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहे गये हैं।

दूसरे ऋषिश्राद्धमें उन्हें ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि कहा गया है।

तीसरे दिव्य श्राद्धमें उनकी वसु, रुद्र और आदित्य संज्ञा बतायी गयी है।

चौथे मनुष्यश्राद्धमें सनक१ आदि चार मुनीश्वर ही नान्दीमुख-देवता हैं।

पाँचवें भूत-श्राद्धमें पाँच महाभूत, नेत्र आदि ग्यारह इन्द्रियसमूह तथा जरायुज आदि चतुर्विध प्राणिसमुदाय नान्दीमुख माने गये हैं।

छठे पितृश्राद्धमें पिता, पितामह और प्रपितामह – ये तीन नान्दीमुख-देवता हैं।

सातवें मातृश्राद्धमें माता, पितामही और प्रपितामही – इन तीनोंको नान्दीमुख-देवता बताया गया है तथा आठवें आत्मश्राद्धमें आत्मा, पिता, पितामह और प्रपितामह – ये चार नान्दीमुखदेवता कहे गये हैं२।

मातामहात्मक श्राद्धमें मातामह, प्रमातामह और वृद्ध-प्रमातामह – ये तीन नान्दीमुख देवता सपत्नीक बताये गये हैं।

प्रत्येक श्राद्धमें दो-दो ब्राह्मण करके जितने ब्राह्मण आवश्यक हों, उनको आमन्त्रित करे और स्वयं यत्नपूर्वक आचमन करके पवित्र हो उन ब्राह्मणोंके पैर धोये।

उस समय इस प्रकार कहे – ‘जो समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिमें कारण, आयी हुई आपत्तिके समूहको नष्ट करनेके लिये धूमकेतु (अग्नि)-रूप तथा अपार संसारसागरसे पार लगानेके लिये सेतुके समान हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरणधूलियाँ मुझे पवित्र करें।

जो आपत्तिरूपी घने अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्य, अभीष्ट अर्थको देनेके लिये कामधेनु तथा समस्त तीर्थोंके जलसे पवित्र मूर्तियाँ हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरणधूलियाँ मेरी रक्षा करें।’३ ऐसा कह पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़कर साष्टांग प्रणाम करे।

तत्पश्चात् पूर्वाभिमुख बैठकर भगवान् शंकरके युगल चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए दृढ़तापूर्वक आसन ग्रहण करे।

हाथमें पवित्री ले शुद्ध हो नूतन यज्ञोपवीत धारण-कर तीन बार प्राणायाम करे।

तदनन्तर तिथि आदिका स्मरण करके इस तरह संकल्प करे – ‘मेरे संन्यासका अंगभूत जो पहले विश्वेदेवका पूजन, फिर देवादि अष्टविधि श्राद्ध तथा अन्तमें मातामहश्राद्ध है, उसे आपलोगोंकी आज्ञा लेकर मैं पार्वणकी विधिसे सम्पन्न करूँगा।’ ऐसा संकल्प करके आसनके लिये दक्षिण-दिशासे आरम्भ करके उत्तरोत्तर कुशोंका त्याग करे।

तत्पश्चात् आचमन करके खड़ा हो वर्णक्रमका आरम्भ करे।

अपने हाथमें पवित्री धारण करके दो ब्राह्मणोंके हाथोंका स्पर्श करते हुए इस प्रकार कहे – ‘विश्वेदेवार्थं भवन्तौ वृणे।

भवद्भ‍यां नान्दीश्राद्धे क्षणः प्रसादनीयः।’ अर्थात् ‘हम विश्वेदेव श्राद्धके लिये आप दोनोंका वरण करते हैं।

आप दोनों नान्दीश्राद्धमें अपना समय देनेकी कृपा करें।’ इतना सभी श्राद्धोंके ब्राह्मणोंके लिये कहे।

सर्वत्र ब्राह्मणवरणकी विधिका यही कम है।

इस प्रकार वरणका कार्य पूरा करके दस मण्डलोंका निर्माण करे।

उत्तरसे आरम्भ करके दसों मण्डलोंका अक्षतसे पूजन करके उनमें क्रमशः ब्राह्मणोंको स्थापित करे।

फिर उनके चरणोंपर भी अक्षत आदि चढ़ाये।

तदनन्तर सम्बोधनपूर्वक विश्वेदेव आदि नामोंका उच्चारण करे और कुश, पुष्प, अक्षत एवं जलसे ‘इदं वः पाद्यम्’ कहकर पाद्य निवेदन करे*।

इस प्रकार पाद्य देकर स्वयं भी अपना पैर धो ले और उत्तराभिमुख हो आचमन करके एक-एक श्राद्धके लिये जो दो-दो ब्राह्मण कल्पित हुए हैं, उन सबको आसनोंपर बिठाये तथा यह कहे – ‘विश्वेदेवस्वरूपस्य ब्राह्मणस्य इदमासनम्।’ – विश्वेदेवस्वरूप ब्राह्मणके लिये यह आसन समर्पित है, यह कह कुशासन दे स्वयं भी हाथमें कुश लेकर आसनपर स्थित हो जाय।

इसके बाद कहे – ‘अस्मिन्नान्दीमुखश्राद्धे विश्वेदेवार्थे भवद्भ‍यां क्षणः क्रियताम् – इस नान्दीमुख श्राद्धमें विश्वेदेवके लिये आप दोनों क्षण (समय प्रदान) करें।’ तदनन्तर ‘प्राप्नुतां भवन्तौ – आप दोनों ग्रहण करें।’ ऐसा कहे।

फिर वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मण इस प्रकार उत्तर दें ‘प्राप्नुयाव – हम दोनों ग्रहण करेंगे।’ इसके बाद यजमान उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करे – ‘मेरे मनोरथकी पूर्ति हो, संकल्पकी सिद्धि हो – इसके लिये आप अनुग्रह करें।’ तत्पश्चात् (पद्धतिके अनुसार अर्घ्य दे, पूजन कर) शुद्ध केलेके पत्ते आदि धोये हुए पात्रोंमें परिपक्व अन्न आदि भोज्य पदार्थोंको परोसकर पृथक्-पृथक् कुश बिछाकर और स्वयं वहाँ जल छिड़ककर प्रत्येक पात्रपर आदरपूर्वक दोनों हाथ लगा ‘पृथिवी ते पात्रम्’१ इत्यादि मन्त्रका पाठ करे।

वहाँ स्थित हुए देवता आदिका चतुर्थ्यन्त उच्चारण करके अक्षतसहित जल ले ‘स्वाहा’ बोलकर उनके लिये अन्न अर्पित करे और अन्तमें ‘न मम’ इस वाक्यका उच्चारण करे।२ सर्वत्र – माता आदिके लिये भी अन्न-अर्पणकी यही विधि है।

अन्तमें इस प्रकार प्रार्थना करे – यत्पादपद्मस्मरणाद् यस्य नामजपादपि।

न्यूनं कर्म भवेत्, पूर्णं तं वन्दे साम्बमीश्वरम्।।

‘जिनके चरणारविन्दोंके चिन्तन एवं नाम-जपसे न्यूनतापूर्ण अथवा अधूरा कर्म भी पूरा हो जाता है, उन साम्ब सदाशिव (उमामहेश्वर)-की मैं वन्दना करता हूँ।’ इसका पाठ करके कहे – ‘ब्राह्मणो! मेरे द्वारा किया हुआ यह नान्दीमुख श्राद्ध यथोक्तरूपसे परिपूर्ण हो, यह आप कहें।’ ऐसी प्रार्थनाके साथ उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद ले और अपने हाथमें लिया हुआ जल छोड़ दे।

फिर पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम करे और उठकर ब्राह्मणोंसे कहे – ‘यह अन्न अमृतरूप हो।’ फिर उदारचेता साधक हाथ जोड़ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक प्रार्थना करे।

श्रीरुद्रसूक्तका चमकाध्यायसहित पाठ करे।

पुरुषसूक्तकी भी विधिवत् आवृत्ति करे।

मनमें भगवान् सदाशिवका ध्यान करते हुए ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’ इत्यादि पाँच मन्त्रोंका जप करे।

जब ब्राह्मणलोग भोजन कर चुकें, तब रुद्रसूक्तका पाठ समाप्तकर क्षमा-प्रार्थनापूर्वक उन ब्राह्मणोंको पुनः ‘अमृतापिधानमसि स्वाहा’ यह मन्त्र पढ़कर उत्तरापोशनके लिये जल दे।

तदनन्तर हाथ-पैर धो आचमन करके पिण्डदानके स्थानपर जाय।

वहाँ पूर्वाभिमुख बैठकर मौनभावसे तीन बार प्राणायाम करे।

इसके बाद ‘मैं ‘नान्दीमुख’ श्राद्धका अंगभूत पिण्डदान करूँगा’ ऐसा संकल्प करके दक्षिणसे लेकर उत्तरकी ओर नौ रेखाएँ खींचे और उन रेखाओंपर क्रमशः बारह-बारह पूर्वाग्र कुश बिछाये।

फिर दक्षिणकी ओरसे देवता आदिके पाँच३ स्थानोंपर चुपचाप अक्षत और जल छोड़े।

पितृवर्गके तीनों४ स्थानोंपर क्रमशः अक्षत, जल छोड़कर नवें मातामहादिके स्थानपर भी मार्जन करे५।

तत्पश्चात् ‘अत्र पितरो मादयध्वम्’ कहकर देवादिके पाँचों स्थानों-पर क्रमशः अक्षत, जल छोड़े।

इस प्रकार अवनेजन दे पाँचों स्थानोंपर प्रत्येक-के लिये तीन-तीन पिण्ड दे६।

(इसी तरह शेष स्थानोंपर भी करे।) अपने गृह्यसूत्रमें बतायी हुई पद्धतिके अनुसार सभी पिण्ड पृथक्-पृथक् देने चाहिये।

फिर पितरोंके साद्‍ गुण्यके लिये जल-अक्षत अर्पित करे।

तत्पश्चात् अपने हृदयकमलमें सदा शिवदेवका ध्यान करे और पूर्वोक्त ‘यत्पादपद्मस्मरणात्……….’ इत्यादि श्लोकका पुनः पाठ करके ब्राह्मणोंको नमस्कारपूर्वक यथाशक्ति दक्षिणा दे।

फिर त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करके देवता-पितरोंका विसर्जन करे।

पिण्डोंका उत्सर्ग करके उन्हें गौओंको खानेके लिये दे दे अथवा जलमें डाल दे।

तत्पश्चात् पुण्याह-वाचन करके स्वजनोंके साथ भोजन करे।

दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर शुद्ध बुद्धिवाला साधक उपवासपूर्वक व्रत रखे।

काँख और उपस्थके बालोंको छोड़कर शेष सभी बाल मुँड़वा दे, परंतु शिखाके सात-आठ बाल अवश्य बचा ले।

फिर स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहनकर शुद्ध हो दो बार आचमन करके मौन हो विधिवत् भस्म धारण करे।

पुण्याहवाचन करके उससे अपने-आपका प्रोक्षण कर बाहर-भीतरसे शुद्ध हो होम, द्रव्य और आचार्यकी दक्षिणाके द्रव्यको छोड़कर शेष सभी द्रव्य महेश्वरार्पणबुद्धिसे ब्राह्मणों और विशेषतः शिवभक्तोंको बाँट दे।

तदनन्तर गुरुरूपधारी शिवके लिये वस्त्र आदिकी दक्षिणा दे, पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके डोरा, कौपीन, वस्त्र तथा दण्ड आदि जो धोकर पवित्र किये गये हों, धारण करे।

तदनन्तर होमद्रव्य और समिधा आदि लेकर समुद्र या नदीके तटपर, पर्वतपर, शिवालयमें, वनमें अथवा गोशालामें किसी उत्तम स्थानका विचार करके वहाँ बैठ जाय और आचमन करके पहले मानसिक जप करे।

फिर ‘ॐ नमो ब्रह्मणे’ इस मन्त्रका तीन बार जप करके ‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ इस मन्त्रका पाठ करे।

इसके बाद ‘अथ महाव्रतम्’, ‘अग्निर्वै देवानाम्’, ‘एतस्य समाम्नायम्’, ‘ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ’, ‘अग्न आयाहि वीतये’ तथा ‘शं नो देवी रभीष्टये’ इत्यादिका पाठ करे।

तत्पश्चात् ‘म य र स त ज भ न ल ग’ ‘पञ्चसंवत्सरमयम्’, ‘समाम्नायः समाम्नातः’, ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि’, ‘वृद्धिसदैच्’, ‘अथातो धर्मजिज्ञासा,’ ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ – इन सबका पाठ करे।

तदनन्तर यथासम्भव वेद, पुराण आदिका स्वाध्याय करे।

इसके बाद ‘ॐ ब्रह्मणे नमः’, ‘ॐ इन्द्राय नमः’, ‘ॐ सूर्याय नमः’, ‘ॐ सोमाय नमः’, ‘ॐ प्रजापतये नमः’, ‘ॐ आत्मने नमः’, ‘ॐ अन्तरात्मने नमः’, ‘ॐ ज्ञानात्मने नमः’, ॐ परमात्मने नमः’ इत्यादि रूपसे ब्रह्मा आदि शब्दोंके आदिमें ‘ॐ’ और अन्तमें ‘नमः’ लगाकर उनके चतुर्थ्यन्त रूपका जप करे।

इसके बाद तीन मुट्ठी सत्तू लेकर प्रणवके उच्चारणपूर्वक तीन बार खाय और प्रणवसे ही दो बार आचमन करके नाभिका स्पर्श करे।

उस समय आगे बताये जानेवाले शब्दोंके आदिमें प्रणव और अन्तमें ‘नमः स्वाहा’ जोड़कर उनका उच्चारण करे।

यथा – ‘ॐ आत्मने नमः स्वाहा’, ‘ॐ अन्तरात्मने नमः स्वाहा’, ‘ॐ ज्ञानात्मने नमः स्वाहा’, ‘ॐ परमात्मने नमः स्वाहा’, ‘ॐ प्रजापतये नमः स्वाहा’ इति।

तदनन्तर पृथक्-पृथक् प्रणवमन्त्रसे१ ही दूध-दही मिले हुए घीको (अथवा केवल जलको) तीन बार चाटकर पुनः दो बार आचमन करे।

इसके बाद मनको स्थिर करके सुस्थिर आसनपर पूर्वाभिमुख बैठकर शास्त्रोक्त विधिसे तीन बार प्राणायाम करे।

(अध्याय १२) * यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।

आनन्दं यस्य वै विद्वान्न बिभेति कुतश्चन।।

यस्माज्जगदिदं सर्वं विधिविष्ण्विन्द्रपूर्वकम्।

सह भूतेन्द्रियग्रामैः प्रथमं सम्प्रसूयते।।

न सम्प्रसूयते यो वै कुतश्चन कदाचन।

यस्मिन्न भासते विद्युन्न च सूर्यो न चन्द्रमाः।।

यस्य भासो विभातीदं जगत् सर्वं समन्ततः।

सर्वैश्वर्येण सम्पन्नो नाम्ना सर्वेश्वरः स्वयम्।।

(शि० पु० कै० सं० १२।७ – १०) १- सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार।

२- धर्मसिन्धुकार आदिने आत्मश्राद्धमें भी तीन ही नान्दीमुख कहे हैं – आत्मा, पिता और पितामह।

३- समस्तसंपत्समवाप्तिहेतवः समुत्थितापत्कुलधूमकेतवः।

अपारसंसारसमुद्रसेतवः पुनन्तु मां ब्राह्मणपादरेणवः।।

आपद्धनध्वान्तसहस्रभानवः समीहितार्थार्पणकामधेनवः।

समस्ततीर्थाम्बुपवित्रमूर्तयो रक्षन्तु मां ब्राह्मणपादपांसवः।।

(शि० पु० कै० सं० १२।४४-४५) * प्रथम मण्डलमें दो विश्वेदेवोंके लिये, फिर आठ मण्डलोंमें क्रमशः देवादि आठ श्राद्धोंके अधिकारियोंके लिये तथा दसवें मण्डलमें सपत्नीक मातामह आदिके लिये पाद्य अर्पण करने चाहिये।

अर्पणवाक्यका प्रयोग इस प्रकार है – ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।। १।।

ॐ ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।। २।।

ॐ देवर्षिब्रह्मर्षिक्षत्रर्षयो नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।। ३।।

इसी प्रकार अन्य श्राद्धोंके लिये वाक्यकी ऊहा कर लेनी चाहिये।

१- पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखेऽमृतेऽमृतं जुहोमि स्वाहा’ यह पूरा मन्त्र है।

२- वाक्यका प्रयोग इस प्रकार है – ‘ॐ सत्यवसुसंज्ञकेभ्यो विश्वेभ्यो देवेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः स्वाहा न मम’ इत्यादि।

३- देव, ऋषि, दिव्य मनुष्य और भूत – इनके पाँच स्थान समझने चाहिये।

४- पिता आदि, माता आदि तथा आत्मा आदि – ये तीन स्थान हैं।

५- उस समय इस प्रकार कहे – ‘शुन्धन्तां ब्रह्माणो नान्दीमुखाः शुन्धन्तां विष्णवो नान्दीमुखाः शुन्धन्तां महेश्वरा नान्दीमुखाः।’ यह प्रथम रेखापर मार्जन करते समय कहे।

इस प्रकार अन्य रेखाओंपर भी कहता चले।

६- पिण्डदान-वाक्य इस प्रकार है – ‘ब्रह्मणे नान्दीमुखाय स्वाहा’, ‘विष्णवे नान्दीमुखाय स्वाहा।’ इत्यादि।

धर्मस्तिन्धुकारने प्रत्येक देवताके लिये दो-दो पिण्डका विधान किया है, अतः नौ स्थानोंके २७ देवताओंके लिये ५४ पिण्ड होंगे।


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